तृतीय स्कन्ध: एकत्रिंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकत्रिंश अध्यायः श्लोक 22-36 का हिन्दी अनुवाद
इसी प्रकार बाल्य (कौमार) और पौगण्ड-अवस्थाओं के दुःख भोगकर वह बालक युवावस्था में पहुँचता है। इस समय उसे यदि कोई इच्छित भोग नहीं प्राप्त होता, तो अज्ञानवश उसका क्रोध उद्दीप्त हो उठता है और वह शोकाकुल हो जाता है। देह के साथ-ही-साथ अभिमान और क्रोध बढ़ जाने के कारण वह कामपरवश जीव अपना ही नाश करने के लिये दूसरे कामी पुरुषों के साथ वैर ठानता है। खोटी बुद्धि वाला वह अज्ञानी जीव पंचभूतों से रचे हुए इस देह में मिथ्याभिनिवेश के कारण निरन्तर मैं-मेरेपन का अभिमान करने लगता है। जो शरीर इसे वृद्धावस्था आदि अनेक प्रकार के कष्ट ही देता है तथा अविद्या और कर्म के सूत्र से बँधा रहने के कारण सदा इसके पीछे लगा रहता है, उसी के लिये यह तरह-तरह के कर्म करता रहता है-जिनमें बँध जाने के कारण इसे बार-बार संसारचक्र में पड़ना होता है। सन्मार्ग में चलते हुए यदि इसका किन्हीं जिह्वा और उपस्थेन्द्रिय के भोगों में लगे हुए विषयी पुरुषों से समागम हो जाता है और यह उनमें आस्था करके उन्हीं का अनुगमन करने लगता है, तो पहले के समान ही फिर नारकी योनियों में पड़ता है। जिनके संग से इसके सत्य, शौच (बाहर-भीतर की पवित्रता), दया, वाणी का संयम, बुद्धि, धन-सम्पत्ति, लज्जा, यश, क्षमा, मन और इन्द्रियों का संयम तथा ऐश्वर्य आदि सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। उन अत्यन्त शोचनीय, स्त्रियों के क्रीड़ामृग (खिलौना), अशान्त, मूढ़ और देहात्मदर्शी असत्पुरुषों का संग कभी नहीं करना चाहिये। क्योंकि इस जीव को किसी और का संग करने से ऐसा मोह और बन्धन नहीं होता, जैसा स्त्री और स्त्रियों के संगियों का संग करने से होता है। एक बार अपनी पुत्री सरस्वती को देखकर ब्रह्मा जी भी उसके रूप-लावण्य से मोहित हो गये थे और उसके मृगीरूप होकर भागने पर उसके पीछे निर्लज्जतापूर्वक मृगरूप होकर दौड़ने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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