श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 26 श्लोक 35-50

तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 33-50 का हिन्दी अनुवाद


फिर शब्दतन्मात्र के कार्य आकाश में कालगति से विकार होने पर स्पर्शतन्मात्र हुआ और उससे वायु तथा स्पर्श का ग्रहण कराने वाली त्वगिन्द्रिय (त्वचा) उत्पन्न हुई। कोमलता, कठोरता, शीतलता और उष्णता तथा वायु का सूक्ष्म रूप होना-ये स्पर्श के लक्षण हैं। वृक्ष की शाकाह आदि को हिलाना, तृणादि को इकठ्ठा कर देना, सर्वत्र पहुँचना, गन्धादियुक्त द्रव्य को घ्राणादि इन्द्रियों के पास तथा शब्द को श्रोत्रेन्द्रिय के समीप ले जाना तथा समस्त इन्द्रियों को कार्यशक्ति देना-ये वायु की वृत्तियों के लक्षण हैं।

तदनन्तर दैव की प्रेरणा से स्पर्श तन्मात्राविशिष्ट वायु के विकृत होने पर उससे रूपतन्मात्र हुआ तथा उससे तेज और रूप को उपलब्ध कराने वाली नेत्रिन्द्रिका प्रादुर्भाव हुआ।

साध्वि! वस्तु के आकार का बोध कराना, गौण होना-द्रव्य के अंगरूप से प्रतीत होना, द्रव्य का जैसा आकार-प्रकार और परिणाम आदि हो, उसी रूप में उपलक्षित होना तथा तेज का स्वरूपभूत होना-ये सब रूप तन्मात्र की वृत्तियाँ हैं। चमकना, पकाना, शीत को दूर करना, सुखाना, भूख-प्यास पैदा कराना-ये तेज की वृत्तियाँ हैं। फिर दैव की प्रेरणा से रूपतन्मात्रमय तेज के विकृत होने पर उससे रसतन्मात्र हुआ और उससे जल तथा रस को ग्रहण कराने वाली रसनेन्द्रिय (जिह्वा) उत्पन्न हुई। रस अपने शुद्ध स्वरूप में एक ही है; किन्तु अन्य भौतिक पदार्थों के संयोग से वह कसैला, मीठा, तीखा, कड़वा, खट्टा और नमकीन आदि कई प्रकार का हो जाता है। गीला करना, मिट्टी आदि को पिण्डाकार बना देना, तृप्त करना, जीवित रखना, प्यास बुझाना, पदार्थों को मृदु कर देना, ताप की निवृत्ति करना और कूपादि में से निकाल लिये जाने पर भी वहाँ बार-बार पुनः प्रकट हो जाना-ये जल की वृत्तियाँ हैं।

इसके पश्चात् दैवप्रेरित रसस्वरूप जल के विकृत होने पर उससे गन्धतन्मात्र हुआ और उससे पृथ्वी तथा गन्ध को ग्रहण कराने वाली घ्राणेन्द्रिय प्रकट हुईं। गन्ध एक ही है; तथापि परस्पर मिले हुए द्रव्य भोगों की न्यूनाधिकता से वह मिश्रित गन्ध, दुर्गन्ध, सुगन्ध, मृदु, तीव्र और अम्ल (खट्टा) आदि अनेक प्रकार का हो जाता है। प्रतिमादिरूप से ब्रह्म की साकार-भावना का आश्रय होना, जल आदि कारण तत्त्वों से भिन्न किसी दूसरे आश्रय की अपेक्षा किये बिना ही स्थित रहना, जल आदि अन्य पदार्थों को धारण करना, आकाशादि का अवच्छेदक होना (घटाकाश, मठाकाश आदि भेदों को सिद्ध करना) तथा परिणाम विशेष से सम्पूर्ण प्राणियों के [स्त्रीत्व, पुरुषत्व आदि] गुणों को प्रकट करना-ये पृथ्वी के कार्यरूप लक्षण हैं।

आकाश का विशेष गुण शब्द जिसका विषय है, वह श्रोत्रेन्द्रिय है; वायु का विशेष गुण सपर्श जिसका विषय है, वह त्वगिन्द्रिय है। तेज का विशेष गुण रूप जिसका विषय है, वह नेत्रेन्द्रिय है; जल का विशेष गुणरस जिसका विषय है, वह रसनेन्द्रिय है और पृथ्वी का विशेष गुण गन्ध जिसका विषय है, उसे घ्राणेन्द्रिय कहते हैं। वायु आदि कार्य-तत्त्वों में आकाशादि कारण-तत्त्वों के रहने से उनके गुण भी अनुगत देखे जाते हैं; इसलिये समस्त महाभूतों के गुण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध केवल पृथ्वी में ही पाये जाते हैं। जब महत्तत्त्व, अहंकार और पंचभूत- ये सात तत्त्व परस्पर मिल न सके-पृथक्-पृथक् ही रह गये, तब जगत् के आदिकारण श्रीनारायण ने काल, अदृष्ट और सत्त्वादि गुणों के सहित उसमें प्रवेश किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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