श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 26 श्लोक 18-34

तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद


इस प्रकार जो अपनी माया के द्वारा सब प्राणियों के भीतर जीवरूप से और बाहर कालरूप से व्याप्त हैं, वे भगवान् ही पचीसवें तत्त्व हैं। जब परमपुरुष परमात्मा जीवों के अदृष्टवश क्षोभ को प्राप्त हुई सम्पूर्ण जीवों की उत्पत्तिस्थानरूपा अपनी माया में चिच्छक्तिरूप वीर्य स्थापित किया, तो उससे तेजोमय महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ। लय-विक्षेपादिरहित तथा जगत् के अंकुररूप इस महत्तत्त्व ने अपने में स्थित विश्व को प्रकट करने के लिये अपने स्वरूप को आच्छादित करने वाले प्रलयकालीन अन्धकार को अपने ही तेज से पी लिया।

जो सत्त्वगुणमय, स्वच्छ, शान्त और भगवान् की उपलब्धि का स्थानरूप चित्त है, वही महत्तत्त्व है और उसी को ‘वासुदेव’ कहते हैं।[1] जिस प्रकार पृथ्वी आदि अन्य पदार्थों के संसर्ग से पूर्व जल अपनी स्वाभाविक (फेन-तरंगरहित) अवस्था में अत्यन्त स्वच्छ, विकारशून्य एवं शान्त होता है, उसी प्रकार अपनी स्वाभाविक अवस्था की दृष्टि से स्वच्छत्व, अविकारित्व और शान्तत्त्व ही वृत्तियों सहित चित्त का लक्षण कहा गया है। तदनन्तर भगवान् की वीर्यरूप चित्त्-शक्ति से उत्पन्न हुए महत्तत्त्व के विकृत होने पर उससे क्रिया-शक्तिप्रधान अहंकार उत्पन्न हुआ। वह वैकारिक, तैजस और तामस भेद से तीन प्रकार का है। उसी से क्रमशः मन, इन्द्रियों और पंचमहाभूतों की उत्पत्ति हुई। इस भूत, इन्द्रिय और मनरूप अहंकार को ही पण्डितजन साक्षात् ‘संकर्षण’ नामक सहस्र सिर वाले अनन्तदेव कहते हैं। इस अहंकार का देवतारूप से कर्तृत्व, इन्द्रियरूप से कारणत्व और पंचभूत रूप से कार्यत्व लक्षण है तथा सत्त्वादि गुणों के सम्बन्ध से शान्तत्त्व, घोरत्व और मूढत्व भी इसी के लक्षण हैं।

उपर्युक्त तीन प्रकार के अहंकार के विकृत होने पर उससे मन हुआ, जिसके संकल्प-विकल्पों से कामनाओं की उत्पत्ति होती है। यह मनस्तत्त्व ही इन्द्रियों के अधिष्ठाता ‘अनिरुद्ध’ के नाम से प्रसिद्ध है। योगिजन शरत्कालीन नीलकमल के समान श्याम वर्ण वाले इन अनिरुद्ध जी की शनैः-शनैः मन को वशीभूत करके आराधन करते हैं।

साध्वि! फिर तैजस अहंकार में विकार होने पर उससे बुद्धित्व उत्पन्न हुआ। वस्तु का स्फुरणरूप विज्ञान और इन्द्रियों के व्यापार में सहायक होना-पदार्थों का विशेष ज्ञान करना-ये बुद्धि के कार्य हैं। वृत्तियों के भेद से संशय, विपर्यय (विपरीत ज्ञान), निश्चय, स्मृति और निद्रा भी बुद्धि के ही लक्षण हैं। यह बुद्धितत्त्व ही ‘प्रद्युम्न’ है। इन्द्रियाँ भी तैजस अहंकार का ही कार्य हैं। कर्म और ज्ञान के विभाग से उनके कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दो भेद हैं। इनमें कर्म प्राण की शक्ति है और ज्ञान बुद्धि की। भगवान् की चेतना शक्ति की प्रेरणा से तापस अहंकार के विकृत होने पर उससे शब्दतन्मात्र का प्रादुर्भाव हुआ। शब्दतन्मात्र से आकाश तथा शब्द का ज्ञान कराने वाली श्रोत्रेन्द्रिय उत्पन्न हुई। अर्थ का प्रकाशक होना, ओट में खड़े हुए वक्ता का भी ज्ञान करा देना और आकाश का सूक्ष्म रूप होना-विद्वानों के मत में यही शब्द के लक्षण हैं। भूतों को अवकाश देना, सबके बाहर-भीतर वर्तमान रहना तथा प्राण, इन्द्रिय और मन का आश्रय होना-ये आकाश के वृत्ति (कार्य) रूप लक्षण हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जिसे अध्यात्म में चित्त कहते हैं; उसी को अधिभूत में महत्तत्त्व कहा जाता है। चित्त में अधिष्ठाता ‘क्षेत्रज्ञ’ और उपास्यदेव ‘वासुदेव’ हैं। इसी प्रकार अहंकार में अधिष्ठाता ‘रुद्र’ और उपास्यदेव ‘संकर्षण’ हैं, बुद्धि में अधिष्ठाता ‘ब्रह्मा’ और उपास्यदेव ‘प्रद्युम्न’ हैं तथा मन में अधिष्ठाता ‘चन्द्रमा’ और उपास्यदेव ‘अनिरुद्ध’ हैं।

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