चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 22-34 का हिन्दी अनुवाद
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- बालक ध्रुव से इस प्रकार पूजित हो और उसे अपना पद प्रदान कर भगवान् श्रीगरुड़ध्वज उसके देखते-देखते अपने लोक को चले गये। प्रभु की चरण सेवा से संकल्पित वस्तु प्राप्त हो जाने के कारण यद्यपि ध्रुव जी का संकल्प तो निवृत्त हो गया, किन्तु उनका चित्त विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। फिर वे अपने नगर लौट गये। विदुर जी ने पूछा- ब्रह्मन्! मायापति श्रीहरि का परमपद तो अत्यत्न दुर्लभ है और मिलता भी उनके चरणकमलों की उपासना से ही है। ध्रुव जी भी सारासार का पूर्ण विवेक रखते थे; फिर एक ही जन्म में उस परमपद को पा लेने पर भी उन्होंने अपने को अकृतार्थ क्यों समझा? श्रीमैत्रेय जी ने कहा- ध्रुव जी का हृदय अपनी सौतेली माता के वाग्बाणों से बिंध गया था तथा वर माँगने के समय भी उन्हें उनका स्मरण बना हुआ था; इसी से उन्होंने मुक्तिदाता श्रीहरि से मुक्ति नहीं माँगी। अब जब भगवद्दर्शन से वह मनोमालिन्य दूर हो गया तो उन्हें अपनी इस भूल के लिये पश्चाताप हुआ। ध्रुव जी मन-ही-मन कहने लगे- अहो! सनकादि उर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) सिद्ध भी जिन्हें समाधि द्वारा अनेकों जन्मों में प्राप्त कर पाते हैं, उन भगवच्चरणों की छाया को मैंने छः महीने में ही पा लिया, किन्तु चित्त में दूसरी वासना रहने के कारण मैं फिर उनसे दूर हो गया। अहो! मुझ मन्दभाग्य की मुर्खता तो देखो, मैंने संसार-पाश को काटने वाले प्रभु के पादपद्मों में पहुँचकर भी उनसे नाशवान् वस्तु की ही याचना की! देवताओं को स्वर्गभोग के पश्चात् फिर नीचे गिरना होता है, इसलिये वे मेरी भगवत्प्राप्तिरूप उच्च स्थिति को सहन नहीं कर सके; अतः उन्होंने ही मेरी बुद्धि को नष्ट कर दिया। तभी तो मुझ दुष्ट ने नारदजी की यथार्थ बात भी स्वीकार नहीं की। यद्यपि संसार में आत्मा के सिवा दूसरा कोई भी नहीं है; तथापि सोया हुआ मनुष्य जैसे स्वप्न में अपने ही कल्पना किये हुए व्याघ्रादि से डरता है, उसी प्रकार मैंने भी भगवान् की माया से मोहित होकर भाई को ही शत्रु मान लिया और व्यर्थ ही द्वेषरूप हार्दिक रोग से जलने लगा। जिन्हें प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन है; उन्हीं विश्वात्मा श्रीहरि को तपस्या द्वारा प्रसन्न करके मैंने जो कुछ माँगा है, वह सब व्यर्थ है; ठीक उसी तरह, जैसे गतायुपुरुष के लिये चिकित्सा व्यर्थ होती है। ओह! मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ, संसार-बन्धन का नाश करने वाले प्रभु से मैंने संसार ही माँगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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