श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 46-61

चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 46-61 का हिन्दी अनुवाद


वेदमूर्ते! यज्ञ और उसका संकल्प दोनों आप ही हैं। पूर्वकाल में आप ही अति विशाल वराहरूप धारणकर रसातल में डूबी हुई पृथ्वी को लीला से ही अपनी दाढ़ों पर उठाकर इस प्रकार निकाल लाये थे, जैसे कोई गजराज कमलिनी को उठा लाये। उस समय आप धीरे-धीरे गरज रहे थे और योगिगण आपका यह अलौकिक पुरुषार्थ देखकर आपकी स्तुति करते जाते थे। यज्ञेश्वर! जब लोग आपके नाम का कीर्तन करते हैं, तब यज्ञ के सारे विघ्न नष्ट हो जाते हैं। हमारा यह यज्ञस्वरूप सत्कर्म नष्ट हो गया था, अतः हम आपके दर्शनों की इच्छा कर रहे थे। अब आप हम पर प्रसन्न होइये। आपको नमस्कार है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- भैया विदुर! जब इस प्रकार सब लोग यज्ञरक्षक भगवान हृषीकेश की स्तुति करने लगे, तब परम चतुर दक्ष ने रुद्र पार्षद वीरभद्र के ध्वंस किये हुए यज्ञ को फिर आरम्भ कर दिया। सर्वान्तर्यामी श्रीहरि यों तो सभी के भोगों के भोक्ता हैं; तथापि त्रिकपाल-पुरोडाशरूप अपने भाग से और भी प्रसन्न होकर उन्होंने दक्ष को सम्बोधन करके कहा।

श्रीभगवान् ने कहा- जगत् का परम कारण मैं ही ब्रह्मा और महादेव हूँ; मैं सबका आत्मा, ईश्वर और साक्षी हूँ तथा स्वयंप्रकाश और उपाधिशून्य हूँ।

विप्रवर! अपनी त्रिगुणात्मिका माया को स्वीकार करके मैं ही जगत् की रचना, पालन और संहार करता रहता हूँ और मैंने ही उन कर्मों के अनुरूप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर- ये नाम धारण किये हैं। ऐसा जो भेदरहित विशुद्ध परब्रह्मस्वरूप मैं हूँ, उसी में अज्ञानी पुरुष ब्रह्मा, रुद्र तथा अन्य समस्त जीवों को विभिन्न रूप से देखता है। जिस प्रकार मनुष्य अपने सिर, हाथ आदि अंगों में ‘ये मुझसे भिन्न हैं’ ऐसी बुद्धि कभी नहीं करता, उसी प्रकार मेरा भक्त प्राणिमात्र को मुझसे भिन्न नहीं देखता। ब्रह्मन्! हम- ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर- तीनों स्वरूपतः एक ही हैं और हम ही सम्पूर्ण जीव रूप हैं; अतः जो हममें कुछ भी भेद नहीं देखता, वही शान्ति प्राप्त करता है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- भगवान् के इस प्रकार आज्ञा देने पर प्रजापतियों के नायक दक्ष ने उनका त्रिकपाल-यज्ञ के द्वारा पूजन करके फिर अंगभूत और प्रधान दोनों प्रकार के यज्ञों से अन्य सब देवताओं का अर्चन किया। फिर एकाग्रचित्त हो भगवान् शंकर का यज्ञशेषरूप उनके भाग से यजन किया तथा समाप्ति में किये जाने वाले उदवसान नामक कर्म से अन्य सोमपायी एवं दूसरे देवताओं का यजन कर यज्ञ का उपसंहार किया और अन्त में ऋत्वियों के सहित अवभृथ-स्नान किया। फिर जिन्हें अपने पुरुषार्थ से ही सब प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त थीं, उन दक्ष प्रजापति को ‘तुम्हारी सदा धर्म में बुद्धि रहे’ ऐसा आशीर्वाद देकर सब देवता स्वर्गलोक को चले गये।

विदुर जी! सुना है कि दक्षसुता सतीजी ने इस प्रकार अपना पूर्व शरीर त्याकर फिर हिमालय की पत्नी मेना के गर्भ से जन्म लिया था। जिस प्रकार प्रलयकाल में लीन हुई शक्ति सृष्टि के आरम्भ में फिर ईश्वर का ही आश्रय लेती है, उसी प्रकार अनन्यपरायणा श्रीअम्बिका जी ने उस जन्म में भी अपने एकमात्र आश्रय और प्रियतम भगवान् शंकर को ही वरण किया। विदुर जी! दक्ष-यज्ञ का विध्वंस करने वाले भगवान् शिव का चरित्र मैंने बृहस्पति जी के शिष्य परम भागवत उद्धव जी के मुख से सुना था। कुरुनन्दन! श्रीमहादेव जी का यह पावन चरित्र यश और आयु को बढ़ाने वाला तथा पापपुंज को नष्ट करने वाला है। जो पुरुष भक्तिभाव से इसका नित्यप्रति श्रवण और कीर्तन करता है, वह अपनी पापराशि का नाश कर देता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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