श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 16-27

चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद


श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- आशुतोष शंकर से इस प्रकार अपना अपराध क्षमा कराकर दक्ष ने ब्रह्मा जी के कहने पर उपाध्याय, ऋत्विज् आदि की सहायता से यज्ञकार्य आरम्भ किया। तब ब्राह्मणों ने यज्ञ सम्पन्न करने के उद्देश्य से रुद्रगण-सम्बन्धी भूत-पिशाचों के संसर्गजनित दोष की शान्ति के लिये तीन पात्रों में विष्णु भगवान् के लिये तैयार किये हुए पुरोडाश नाम चरु का हवन किया। विदुर जी! उस हवि को हाथ में लेकर खड़े हुए अध्वर्यु के साथ यजमान दक्ष ने ज्यों ही विशुद्ध चित्त से श्रीहरि का ध्यान किया, त्यों ही सहसा भगवान् वहाँ प्रकट हो गये।

‘बृहत्’ एवं ‘रथन्तर’ नामक साम-स्तोत्र जिनके पंख हैं, गरुड़ जी के द्वारा समीप लाये हुए भगवान् ने दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई अपनी अंगकान्ति से सब देवताओं का तेज हर लिया-उनके सामने सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी। उनका श्याम वर्ण था, कमर में सुवर्ण की करधनी तथा पीताम्बर सुशोभित थे। सिर पर सूर्य के समान देदीप्यमान मुकुट था, मुखकमल भौंरों के समान नीली अलकावली और कान्तिमय कुण्डलों से शोभायमान था, उनके सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित आठ भुजाएँ थीं, जो भक्तों की रक्षा के लिये सदा उद्यत रहती हैं। आठों भुजाओं में वे शंख, पद्म, चक्र, बाण, धनुष, गदा, खड्ग और ढाल लिये हुए थे तथा इन सब आयुधों के कारण वे फूले हुए कनेर के वृक्ष के समान जान पड़ते थे। प्रभु के हृदय में श्रीवत्स का चिह्न था और सुन्दर वनमाला सुशोभित थी। वे अपने उदार हास और लीलामय कटाक्ष से सारे संसार को आनन्दमग्न कर रहे थे। पार्षदगण दोनों ओर राजहंस के समान सफ़ेद पंखे और चँवर डुला रहे थे। भगवान् के मस्तक पर चन्द्रमा के समान शुभ्र छत्र शोभा दे रहा था।

भगवान् पधारे हैं- यह देखकर इन्द्र, ब्रह्मा और महादेव जी आदि देवेश्वरों सहित समस्त देवता, गन्धर्व और ऋषि आदि ने सहसा खड़े होकर उन्हें प्रणाम किया। उनके तेज से सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी, जिह्वा लड़खड़ाने लगी, वे सब-के-सब सकपका गये और मस्तक पर अंजलि बाँधकर भगवान् के सामने खड़े हो गये। यद्यपि भगवान् की महिमा तक ब्रह्मा आदि की मति भी नहीं पहुँच पाती, तो भी भक्तों पर कृपा करने के लिये दिव्यरूप में प्रकट हुए श्रीहरि की वे अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार स्तुति करने लगे। सबसे पहले प्रजापति दक्ष एक उत्तम पात्र में पूजा की सामग्री ले नन्द-सुनन्दादि पार्षदों से घिरे हुए, प्रजापतियों के परमगुरु भगवान् यज्ञेश्वर के पास गये और अति आनन्दित हो विनीतभाव से हाथ जोड़कर प्रार्थना करते प्रभु के शरणापन्न हुए।

दक्ष ने कहा- भगवन्! अपने स्वरूप में आप बुद्धि की जाग्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओं से रहित, शुद्ध, चिन्मय, भेदरहित, अतएव निर्भय हैं। आप माया का तिरस्कार करके स्वतन्त्ररूप से विराजमान हैं; तथापि जब माया से ही जीवभाव को स्वीकार कर उसी माया में स्थित हो जाते हैं, तब अज्ञानी-से दीखने लगते हैं।

ऋत्विजों ने कहा- उपाधिरहित प्रभो! भगवान् रुद्र के प्रधान अनुचर नन्दीश्वर के शाप के कारण हमारी बुद्धि केवल कर्मकाण्ड में ही फँसी हुई है, अतएव हम आपके तत्त्व को नहीं जानते। जिसके लिये ‘इस कर्म का यही देवता है’ ऐसी व्यवस्था की गयी है-उस धर्म प्रवृत्ति के प्रयोजक, वेदत्रयी से प्रतिपादित यज्ञ को ही हम आपका स्वरूप समझते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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