श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 20-34

चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 20-34 का हिन्दी अनुवाद


प्रवृत्ति (यज्ञ-यागादि) और निवृत्ति (शम-दमादि) रूप दोनों ही प्रकार के कर्म ठीक हैं। वेद में उनके अलग-अलग रागी और विरागी दो प्रकार के अधिकारी बताये गये हैं। परस्पर विरोधी होने के कारण उक्त दोनों प्रकार के कर्मों का एक साथ एक ही पुरुष के द्वारा आचरण नहीं किया जा सकता। भगवान् शंकर तो परब्रह्म परमात्मा हैं। उन्हें इन दोनों में से किसी भी प्रकार का कर्म करने की आवश्यकता नहीं है।

पिताजी! हमारा ऐश्वर्य अवयक्त है, आत्मज्ञानी महापुरुष ही उसका सेवन कर सकते हैं। आपके पास वह ऐश्वर्य नहीं है और यज्ञशालाओं में यज्ञान्न से तृप्त होकर प्राण पोषण करने वाले कर्मठ लोग उसकी प्रशंसा भी नहीं करते। आप भगवान् शंकर का अपराध करने वाले हैं। अतः आपके शरीर से उत्पन्न इस निन्दनीय देह को रखकर मुझे क्या करना है। आप-जैसे दुर्जन से सम्बन्ध होने के कारण मुझे लज्जा आती है। जो महापुरुषों का अपराध करता है, उससे होने वाले जन्म को भी धिक्कार है। जिस समय भगवान् शिव आपके साथ मेरा सम्बन्ध दिखलाते हुए मुझे हँसी में ‘दाक्षायणी’ (दक्षकुमारी) के नाम से पुकारेंगे, उस समय हँसी को भूलकर मुझे बड़ी ही लज्जा और खेद होगा। इसलिये उसके पहले ही मैं आपके अंग से उत्पन्न इस शवतुल्य शरीर को त्याग दूँगी।

मैत्रेय जी कहते हैं- कामादि शत्रुओं को जीतने वाले विदुर जी! उस यज्ञमण्डप में दक्ष से इस प्रकार कह देवी सती मौन होकर उत्तर दिशा में भूमि पर बैठ गयीं। उन्होंने आचमन करके पीला वस्त्र ओढ़ लिया तथा आँखें मूँदकर शरीर छोड़ने के लिये वे योगमार्ग में स्थित हो गयीं। उन्होंने आसन को स्थिर कर प्राणायाम द्वारा प्राण और अपान को एकरूप करके नाभिचक्र में स्थित किया; फिर उदानवायु को नाभिचक्र से ऊपर उठाकर धीरे-धीरे बुद्धि के साथ हृदय में स्थापित किया। इसके पश्चात् अनिन्दिता सती उस हृदय स्थित वायु को कण्ठमार्ग से भ्रुकुटियों के बीच में ले गयीं। इस प्रकार, जिस शरीर को महापुरुषों के भी पूजनीय भगवान् शंकर ने कई बार बड़े आदर से अपनी गोद में बैठाया था, दक्ष पर कुपित होकर उसे त्यागने की इच्छा से महामनस्विनी सती ने अपने सम्पूर्ण अंगों में वायु और अग्नि की धारणा की। अपने पति जगद्गुरु भगवान् शंकर के चरण-कमल-मकरन्द का चिन्तन करते-करते सती ने और सब ध्यान भुला दिये; उन्हें उन चरणों के अतिरिक्त कुछ भी दिखायी न दिया। इससे वे सर्वथा निर्दोष, अर्थात् मैं दक्ष कन्या हूँ-ऐसे अभिमान से भी मुक्त हो गयीं और उनका शरीर तुरंत ही योगाग्नि से जल उठा।

उस समय वहाँ आये हुए देवता आदि ने जब सती का देहत्यागरूप यह महान् आश्चर्यमय चरित्र देखा, तब वे सभी हाहाकार करने लगे और वह भयंकर कोलाहल आकाश में एवं पृथ्वीतल पर सभी जगह फैल गया। सब ओर यही सुनायी देता था- ‘हाय! दक्ष के दुर्व्यवहार से कुपित होकर देवाधिदेव महादेव की प्रिया सती ने प्राण त्याग दिये। देखो, सारे चराचर जीव इस दक्ष प्रजापति की ही सन्तान हैं; फिर भी इसने कैसी भारी दुष्टता की है! इसकी पुत्री शुद्धहृदया सती सदा ही मान पाने के योग्य थी, किन्तु इसने उसका ऐसा निरादर किया कि उसने प्राण त्याग दिये। वास्तव में यह बड़ा ही असहिष्णु और ब्राह्मणद्रोही है। अब इसकी संसार में बड़ी अपकीर्ति होगी। जब इसकी पुत्री सती इसी के अपराध से प्राण त्याग करने को तैयार हुई, तब भी इस शंकरद्रोही ने उसे रोका तक नहीं।’

जिस समय सब लोग ऐसा कह रहे थे, उसी समय शिव जी के पार्षद सती का यह अद्भुत प्राणत्याग देख, अस्त्र-शस्त्र लेकर दक्ष को मारने के लिये उठ खड़े हुए। उनके आक्रमण का वेग देखकर भगवान् भृगु ने यज्ञ में विघ्न डालने वालों का नाश करने के लिये ‘अपहतं रक्ष...’ इत्यादि मन्त्र का उच्चारण करते हुए दक्षिणाग्नि में आहुति दी। अध्वर्यु भृगु ने ज्यों ही आहुति छोड़ी कि यज्ञकुण्ड से ‘ऋभु’ नाम के हजारों तेजस्वी देवता प्रकट हो गये। इन्होंने अपनी तपस्या के प्रभाव से चन्द्रलोक प्राप्त किया था। उन ब्रह्मतेज सम्पन्न देवताओं ने जलती हुई लकड़ियों से आक्रमण किया, तो समस्त गुह्यक और प्रथमगण इधर-उधर भाग गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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