श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 43-52

एकादश स्कन्ध: पंचम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: पंचम अध्याय श्लोक 43-52 का हिन्दी अनुवाद


नारद जी कहते हैं- वसुदेव जी! मिथिला नरेश राजा निमि नौ योगीश्वरों से इस प्रकार भागवत धर्मों का वर्णन सुनकर बहुत आनन्दित हुए। उन्होंने अपने ऋत्विज् और आचार्यों के साथ ऋषभनन्दन नव योगीश्वरों की पूजा की। इसके बाद सब लोगों के सामने ही वे सिद्ध अन्तर्धान हो गये। विदेहराज निमि ने उनसे सुने हुए भागवत धर्मों का आचरण किया और परमगति प्राप्त की।

महाभाग्यवान् वसुदेव जी! मैंने तुम्हारे आगे जिन भागवत धर्मों का वर्णन किया है, तुम भी यदि श्रद्धा के साथ इनका आचरण करोगे तो अन्त में सब आसक्तियों से छूटकर भगवान का परमपद प्राप्त कर लोगे। वसुदेव जी! त्तुम्हारे और देवकी के यश से तो सारा जगत् भरपूर हो रहा है; क्योंकि सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण तुम्हारे पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए हैं। तुम लोगों ने भगवान के दर्शन, आलिंगन तथा बातचीत करने एवं उन्हें सुलाने, बैठाने, खिलाने आदि के द्वारा वात्सल्य-स्नेह करके अपना हृदय शुद्ध कर लिया है; तुम परम पवित्र हो गये हो।

वसुदेव जी! शिशुपाल, पौण्ड्रक और शाल्व आदि राजाओं ने तो वैरभाव से श्रीकृष्ण की चाल-ढाल, लीला-विलास, चितवन-बोलन आदि का स्मरण किया था। वह भी नियमानुसार नहीं, सोते, बैठते, चलते-फिरते-स्वाभाविक रूप से ही। फिर भी उनकी चित्तवृत्ति श्रीकृष्णाकार हो गयी और वे सारूप्यमुक्ति के अधिकारी हुए। फिर जो लोग प्रेम भाव और अनुराग से श्रीकृष्ण का चिन्तन करते हैं, उन्हें श्रीकृष्ण की प्राप्ति होने में कोई सन्देह है क्या?

वसुदेव जी! तुम श्रीकृष्ण को केवल अपना पुत्र ही मत समझो। वे सर्वात्मा, सर्वेश्वर, कारणातीत और अविनाशी हैं। उन्होंने लीला के लिये मनुष्य रूप प्रकट करके अपना ऐश्वर्य छिपा रखा है। वे पृथ्वी के भारभूत राजवेषधारी असुरों का नाश और संतों की रक्षा करने के लिये तथा जीवों को परम शान्ति और मुक्ति देने के लिये ही अवतीर्ण हुए हैं और इसी के लिये जगत् में उनकी कीर्ति भी गायी जाती है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- प्रिय परीक्षित! नारद जी के मुख से यह सब सुनकर परम भाग्यवान् वसुदेव जी और परम भाग्यवती देवकी जी को बड़ा ही विस्मय हुआ। उनमें जो कुछ माया-मोह अवशेष था, उसे उन्होंने तत्क्षण छोड़ दिया। राजन्! यह इतिहास परम पवित्र है। जो एकाग्रचित्त से इसे धारण करता है, वह अपना सारा शोक-मोह दूर करके ब्रह्मपद को प्राप्त होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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