एकादश स्कन्ध: तृतीय अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्लोक 32-36 का हिन्दी अनुवाद
राजन्! जो इस प्रकार भागवत धर्मों की शिक्षा ग्रहण करता है, उसे उनके द्वारा प्रेम-भक्ति की प्राप्ति हो जाती है और वह भगवान नारायण के परायण होकर उस माया को अनायास ही पार कर जाता है, जिसके पंजे से निकलना बहुत ही कठिन है। राजा निमि ने पूछा- 'महर्षियो! आप लोग परमात्मा का वास्तविक स्वरूप जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिए मुझे यह बतलाइये कि जिस परब्रह्म परमात्मा का ‘नारायण’ नाम से वर्णन किया जाता है, उनका स्वरूप क्या है?' अब पाँचवे योगीश्वर पिप्पलायन जी ने कहा- राजन्! जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का निमित्त कारण और उपादान-कारण दोनों ही है, बनने वाला भी है और बनाने वला भी-परन्तु स्वयं कारणरहित है; जो स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति अवस्थाओं में उनके साक्षी के रूप में विद्यामान रहता है और उनके अतिरिक्त समाधि में भी ज्यों-का-त्यों एकरस रहता है; जिसकी सत्ता से ही सत्तावान् होकर शरीर, इन्द्रिय, प्राण और अन्तःकरण अपना-अपना काम करने में समर्थ होते हैं, उसी परम सत्य वस्तु को आप ‘नारायण’ समझिये। जैसे चिनगारियाँ न तो अग्नि को प्रकाशित ही कर सकती हैं और न जला ही सकती हैं, वैसे ही उस परमतत्त्व में-आत्मस्वरूप में न तो मन की गति है और न वाणी की, नेत्र उसे देख नहीं सकते और बुद्धि सोच नहीं सकती, प्राण और इन्द्रियाँ तो उसके पास तक नहीं फटक पातीं। ‘नेति-नेति’-इत्यादि श्रुतियों के शब्द भी वह यह है-इस रूप में उसका वर्णन नहीं करते, बल्कि उसको बोध कराने वाले जितने भी साधन हैं, उनका निषेध करके तात्पर्यरूप से अपना मूल-निषेध का मूल लक्षित करा देते हैं; क्योंकि यदि निषेध के आधार की, आत्मा की सत्ता न हो तो निषेध कौन कर रहा है, निषेध की वृत्ति किसमें है-इन प्रश्नों का कोई उत्तर ही न रहे, निषेध की ही सिद्धि न हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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