एकादश स्कन्ध: षड्विंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षड्विंश अध्याय श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद
जो रस्सी के स्वरूप को न जानकर उसमें सर्प की कल्पना कर रहा है और दु:खी हो रहा है, रस्सी ने उसका क्या बिगाड़ा है? इसी प्रकार इस उर्वशी ने भी हमारा क्या बिगाड़ा? क्योंकि स्वयं मैं ही अजितेन्द्रिय होने के कारण अपराधी हूँ। कहाँ तो यह मैला-कुचैला, दुर्गन्ध से भरा अपवित्र शरीर और कहाँ सुकुमारता, पवित्रता, सुगन्ध आदि पुष्पोंचित गुण! परन्तु मैंने अज्ञानवश असुन्दर में सुन्दर का आरोप कर लिया। यह शरीर माता-पिता का सर्वस्व है अथवा पत्नी की सम्पत्ति? यह स्वामी की मोल ली हुई वस्तु है, आग का ईधन है अथवा कुत्ते और गीधों का भोजन? इसे अपना कहें अथवा सुहृद्-सम्बन्धियों का? बहुत सोचने-विचारने पर भी कोई निश्चय नहीं होता। यह शरीर मल-मूत्र से भरा हुआ अत्यन्त अपवित्र है। इसका अन्त यही है कि पक्षी खाकर विष्ठा कर दें, इसके सड़ जाने पर इसमें कीड़ें पड़ जायें अथवा जला देने पर यह राख का ढेर हो जाये। ऐसे शरीर पर लोग लट्टू हो जाते हैं और कहने लगते हैं- ‘अहो! इस स्त्री का मुखड़ा कितना सुन्दर है! नाक कितनी सुघड़ है और मन्द-मन्द मुस्कान कितनी मनोहर है।' यह शरीर त्वचा, मांस, रुधिर, स्नायु, मेदा, मज्जा और हड्डियों का ढेर और मल-मूत्र तथा पीब से भरा हुआ है। यदि मनुष्य इसमें रमता है तो मल-मूत्र के कीड़ों और उसमें अन्तर ही क्या है। इसलिये अपनी भलाई समझने वाले विवेकी मनुष्य को चाहिये कि स्त्रियों और स्त्री-लम्पट पुरुषों का संग न करे। विषय और इन्द्रियों के संयोग से ही मन में विकार होता है; अन्यथा विकार का कोई अवसर ही नहीं है। जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गयी है, उसके लिये मन में विकार नहीं होता। जो लोग विषयों के साथ इन्द्रियों का संयोग नहीं होने देते, उनका मन अपने-आप निश्चल होकर शान्त हो जाता है। अतः वाणी, कान और मन आदि इन्द्रियों से स्त्रियों और स्त्रीलम्पटों का संग कभी नहीं करना चाहिये। मेरे-जैसे लोगों की तो बात ही क्या, बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी अपनी इन्द्रियाँ और मन विश्वसनीय नहीं हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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