श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 14-33

अष्टम स्कन्ध: प्रथमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 14-33 का हिन्दी अनुवाद


इसी से ऋषि-मुनि नैष्कर्म्य स्थित अर्थात ब्रह्म से एकत्व प्राप्त करने के लिये पहले कर्म योग का अनुष्ठान करते हैं। प्रायः कर्म करने वाला पुरुष ही अन्त में निष्क्रिय होकर कर्मों से छुट्टी पा लेता है। यों तो सर्वशक्तिमान भगवान भी कर्म करते हैं, परन्तु वे आत्मलाभ से पूर्णकाम होने के कारण उन कर्मों में आसक्त नहीं होते। अतः उन्हीं का अनुसरण करके अनासक्त रहकर कर्म करने वाले भी कर्मबन्धन से मुक्त ही रहते हैं। भगवान ज्ञानस्वरूप हैं, इसलिये उनमें अहंकार का लेश भी नहीं है। वे सर्वतः परिपूर्ण हैं, इसलिये उन्हें किसी वस्तु की कामना नहीं है। वे बिना किसी की प्रेरणा के स्वच्छन्द रूप से ही कर्म करते हैं। वे अपनी ही बनायी हुई मर्यादा में स्थित रहकर अपने कर्मों के द्वारा मनुष्यों को शिक्षा देते हैं। वे ही समस्त धर्मों के प्रवर्तक और उनके जीवनदाता हैं। मैं उन्हीं प्रभु की शरण में हूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! एक बार स्वायम्भुव मनु एकाग्रचित्त से इन मन्त्रमय उपनिषत्स्वरूप श्रुति का पाठ कर रहे थे। उन्हें नींद में अचेत होकर बड़बड़ाते जान भूखे असुर और राक्षस खा डालने के लिये उन पर टूट पड़े। यह देखकर अन्तर्यामी भगवान यज्ञपुरुष अपने पुत्र याम नामक देवताओं के साथ वहाँ आये। उन्होंने उन खा डालने के निश्चय से आये हुए असुरों का संहार कर डाला और फिर वे इन्द्र के पद पर प्रतिष्ठित होकर स्वर्ग का शासन करने लगे।

परीक्षित! दूसरे मनु हुए स्वारोचिष। वे अग्नि के पुत्र थे। उनके पुत्रों के नाम थे-द्युमान्, सुषेण और रोचिष्मान् आदि। उस मन्वन्तर में इन्द्र का नाम था रोचन, प्रधान देवगण थे तुषित आदि। ऊर्जास्तम्भ आदि वेदवादीगण सप्तर्षि थे। उस मन्वन्तर में वेदशिरा नाम के ऋषि की पत्नी तुषिता थीं। उनके गर्भ से भगवान ने अवतार ग्रहण किया और विभु नाम से प्रसिद्ध हुए। वे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। उन्हीं के आचरण से शिक्षा ग्रहण करके अठासी हजार व्रतनिष्ठ ऋषियों ने भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया।

तीसरे मनु थे उत्तम। वे प्रियव्रत के पुत्र थे। उनके पुत्रों के नाम थे-पवन, सृंजय, यज्ञहोत्र आदि। उस मन्वन्तर में वसिष्ठ जी के प्रमद आदि सात पुत्र सप्तर्षि थे। सत्य, वेदश्रुत और भद्र नामक देवताओं के प्रधान गण थे और इन्द्र का नाम था सत्यजित। उस समय धर्म की पत्नी सूनृता के गर्भ से पुरुषोत्तम भगवान ने सत्यसेन के नाम से अवतार ग्रहण किया था। उनके साथ सत्यव्रत नाम के देवगण भी थे। उस समय के इन्द्र सत्यजित् के सखा बनकर भगवान ने असत्यपरायण, दुःशील और दुष्ट यक्षों, राक्षसों एवं जीवद्रोही भूतगणों का संहार किया।

चौथे मनु का नाम था तामस। वे तीसरे मनु उत्तम के सगे भाई थे। उनके पृथु, ख्याति, नर, केतु इत्यादि दस पुत्र थे। सत्यक, हरि और वीर नामक देवताओं के प्रधान गण थे। इन्द्र का नाम था त्रिशिख। उस मन्वन्तर में ज्योतिर्धाम आदि सप्तर्षि थे। परीक्षित! उस तामस नाम के मन्वन्तर में विधृति के पुत्र वैधृति नाम के और भी देवता हुए। उन्होंने समय के फेर से नष्टप्राय वेदों को अपनी शक्ति से बचाया था, इसीलिये ये ‘वैधृति’ कहलाये। इस मन्वन्तर में हरिमेधा ऋषि की पत्नी हरिणी के गर्भ से हरि के रूप में भगवान ने अवतार ग्रहण किया। इसी अवतार में उन्होंने ग्राह से गजेन्द्र की रक्षा की थी।

राजा परीक्षित ने पूछा- मुनिवर! हम आपसे यह सुनना चाहते हैं कि भगवान ने गजेन्द्र को ग्राह के फंदे से कैसे छुड़ाया था। सब कथाओं में वही कथा परमपुण्यमय, प्रशंसनीय, मंगलकारी और शुभ हैं, जिसमें महात्माओं के द्वारा गान किये हुए भगवान श्रीहरि के पवित्र यश का वर्णन रहता है।

सूत जी कहते हैं- शौनकादि ऋषियों! राजा परीक्षित आमरण अनशन करके कथा सुनने के लिये ही बैठे हुए थे। उन्होंने जब श्रीशुकदेव जी महाराज को इस प्रकार कथा कहने के लिये प्रेरित किया, तब वे बड़े आनन्दित हुए और प्रेम से परीक्षित का अभिनन्दन करके मुनियों की भरी सभा में कहने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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