श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 15-23

अष्टम स्कन्ध: अथाष्टादशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 15-23 का हिन्दी अनुवाद


पृथ्वी ने कृष्णमृग का चर्म, वन के स्वामी चन्द्रमा ने दण्ड, माता अदिति ने कौपीन और कटिवस्त्र एवं आकाश के अभिमानी देवता ने वामन वेषधारी भगवान् को छत्र दिया।

परीक्षित! अविनाशी प्रभु को ब्रह्मा जी ने कमण्डलु, सप्तर्षियों ने कुश और सरस्वती ने रुद्राक्ष की माला समर्पित की। इस रीति से जब वामन भगवान का उपनयन-संस्कार हुआ, तब यक्षराज कुबेर ने उनको भिक्षा का पात्र और सतीशिरोमणि जगज्जननी स्वयं भगवती उमा ने भिक्षा दी।

इस प्रकार जब सब लोगों ने वटु वेषधारी भगवान का सम्मान किया, तब वे ब्रह्मर्षियों से भरी हुई सभा मे अपने ब्रह्मतेज के कारण अत्यन्त शोभायमान हुए। इसके बाद भगवान ने स्थापित और प्रज्ज्वलित अग्नि का कुशों से परिसमूहन और परिस्तरण करके पूजा की और समिधाओं से हवन किया।

परीक्षित! उसी समय भगवान् ने सुना कि सब प्रकार की सामग्रियों से सम्पन्न यशस्वी बलि भृगुवंशी ब्राह्मणों के आदेशानुसार बहुत-से अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं, तब उन्होंने वहाँ के लिये यात्रा की। भगवान समस्त शक्तियों से युक्त हैं। उनके चलने के समय उनके भार से पृथ्वी पग-पग पर झुकने लगी।

नर्मदा नदी के उत्तर तट पर ‘भृगुकच्छ’ नाम का एक बड़ा सुन्दर स्थान है। वहीं बलि के भृगुवंशी ऋत्विज श्रेष्ठ यज्ञ का अनुष्ठान करा रहे थे। उन लोगों ने दूर से ही वामन भगवान को देखा, तो उन्हें ऐसा जान पड़ा, मानो साक्षात् सूर्य देव का उदय हो रहा हो।

परीक्षित! वामन भगवान् के तेज से ऋत्विज, यजमान और सदस्य-सब-के-सब निस्तेज हो गये। वे लोग सोचने लगे कि कहीं यज्ञ देखने के लिये सूर्य, अग्नि अथवा सनत्कुमार तो नहीं आ रहे हैं। भृगु के पुत्र शुक्राचार्य आदि अपने शिष्यों के साथ इसी प्रकार अनेकों कल्पनाएँ कर रहे थे। उसी समय हाथ में छत्र, दण्ड और जल से भरा कमण्डलु लिये हुए वामन भगवान ने अश्वमेध यज्ञ के मण्डप में प्रवेश किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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