श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 4 श्लोक 41-53

श्रीमद्भागवत माहात्म्य चतुर्थ अध्याय

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श्रीमद्भागवत माहात्म्य (प्रथम खण्ड) चतुर्थ अध्यायः श्लोक 41-53 का हिन्दी अनुवाद

जब महात्माजी ने देखा कि यह किसी प्रकार अपना आग्रह नहीं छोड़ता, तब उन्होंने उसे एक फल देकर कहा—‘इसे तुम अपनी पत्नी को खिला देना, इससे उसके एक पुत्र होगा। तुम्हारी स्त्री को एक साल तक सत्य, शौच, दया, दान और एक समय एक ही अन्न खाने का नियम रखना चाहिये। यदि वह ऐसा करेगी तो बालक बहुत शुद्ध स्वभाव वाला होगा’। यों कहकर वे योगिराज चले गये और ब्राह्मण अपने घर लौट आया। वहाँ आकर उसने वह फल अपनी स्त्री के हाथ में दे दिया और स्वयं कहीं चला गया। उसकी स्त्री तो कुटिल स्वभाव की थी ही, वह रो-रोकर अपनी एक सखी से कहने लगी—‘सखी! मुझे तो बड़ी चिन्ता हो गयी, मैं तो यह फल नहीं खाऊँगी। फल खाने से गर्भ रहेगा और गर्भ से पेट बढ़ जायगा। फिर कुछ खाया-पीया जायगा नहीं, इससे मेरी शक्ति क्षीण हो जायगी; तब बता, घर का धंधा कैसे होगा ? और—दैववश—यदि कहीं गाँव में डाकुओं का आक्रमण हो गया तो गर्भिणी स्त्री कैसे भागेगी। यदि शुकदेवजी की तरह यह गर्भ भी पेट में ही रह गया तो इसे बाहर कैसे निकाला जायगा। और कहीं प्रसवकाल के समय वह टेढ़ा हो गया तो फिर प्राणों से ही हाथ धोना पड़ेगा। यों भी प्रसव के समय बड़ी भयंकर पीड़ा होती है; मैं सुकुमारी भला, यह सब कैसे सह सकूँगी ? मैं जब दुर्बल पड़ जाऊँगी, तब ननदरानी आकर घर का माल-मता समेत ले जायँगी।

और मुझसे तो सत्य-शौचादि नियमों का पालन होना भी कठिन ही जान पड़ता है। जो स्त्री बच्चा जनती है, उसे उस बच्चे के लालन-पालन में भी बड़ा कष्ट होता है। मेरे विचार से तो वन्ध्या या विधवा स्त्रियाँ ही सुखी हैं’। मन में ऐसे ही तरह-तरह के कुतर्क उठने से उसने वह फल नहीं खाया और जब उसके पति ने पूछा—‘फल खा लिया ?’ तब उसने कह दिया—‘हाँ, खा लिया’। एक दिन उसकी बहिन अपने-आप ही उसके घर आयी; तब उसने अपनी बहिन को सारा वृतान्त सुनाकर कहा कि ‘मेरे मन में इसकी बड़ी चिन्ता है। मैं इस दुःख के कारण दिनों दिन दुबली हो रही हूँ। बहिन! मैं क्या करूँ ?’ बहिन ने कहा, ‘मेरे पेट में बच्चा है, प्रसव होने पर वह बालक मैं तुझे दे दूँगी। तब तक तू गर्भवती के समान घर में गुप्त-रूप से सुख से रह। तू मेरे पति को कुछ धन दे देगी तो वे तुझे अपना बालक दे देंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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