श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 4 श्लोक 1-12

श्रीमद्भागवत माहात्म्य चतुर्थ अध्याय

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श्रीमद्भागवत माहात्म्य (प्रथम खण्ड) चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


गोकर्णोपाख्यान प्रारम्भ

सूतजी कहते हैं—मुनिवर! उस समय अपने भक्तों के चित्त में अलौकिक भक्ति का प्रादुर्भाव हुआ देख भक्तवत्सल श्रीभगवान् अपना धाम छोड़कर वहाँ पधारे। उनके गले में वनमाला शोभा पा रही थी, श्रीअंग सजल जलधर के समान श्यामवर्ण था, उस पर मनोहर पीताम्बर सुशोभित था, कटिप्रदेश करधनी की लड़ियों से सुसज्जित था, सिर पर मुकुट की लटक और कानों में कुण्डलों की झलक देखते ही बनती थी। वे त्रिभंगललित भाव से खड़े हुए चित्त को चुराये लेते थे। वक्षःस्थल पर कौस्तुभमणि दमक रही थी, सारा श्रीअंग हरिचन्दन से चर्चित था। उस रूप की शोभा क्या कहें, उसने तो मानो करोड़ों कामदेवों की रूपमाधुरी छीन ली थी। वे परमानन्दचिन्मूर्ति मधुरातिमधुर मुरलीधर ऐसी अनुपम छबि से अपने भक्तों के निर्मल चित्तों में आविर्भूत हुए।

भगवान के नित्य लोक-निवासी लीलापरिकर उद्धवादि वहाँ गुप्त रूप से उस कथा को सुनने के लिये आये हुए थे। प्रभु के प्रकट होते ही चारों ओर ‘जय हो! जय हो!!’ की ध्वनि होने लगी। उस समय भक्तिरस का अद्भुत प्रवाह चला, बार-बार अबीर-गुलाल और पुष्पों की वर्षा तथा शंखध्वनि होने लगी। उस सभा में जो लोग बैठे थे, उन्हें अपने देह, गेह और आत्मा की भी कोई सुधि न रही। उनकी ऐसी तन्मयता देखकर नारदजी कहने लगे— मुनीश्वरगण! आज सप्ताह श्रवण की मैंने यह बड़ी ही अलौकिक महिमा देखी। यहाँ तो जो बड़े मूर्ख, दुष्ट और पशु-पक्षी भी हैं, वे सभी अत्यन्त निष्पाप हो गये हैं। अतः इसमें सन्देह नहीं कि कलिकाल में चित्त की शुद्धि के लिये इस भागवत कथा के समान मर्त्यलोक में पापपुंज का नाश करने वाला कोई दूसरा पवित्र साधन नहीं है। मुनिवर! आप लोग बड़े कृपालु हैं, आपने संसार के कल्याण का विचार करके यह बिलकुल निराला ही मार्ग निकाला है। आप कृपया यह तो बताइये कि इस कथा रूप सप्ताह यज्ञ के द्वारा संसार में कौन-कौन लोग पवित्र हो जाते हैं।

सनकादि ने कहा—जो लोग सदा तरह-तरह के पाप किया करते हैं, निरन्तर दुराचार में ही तत्पर रहते हैं और उलटे मार्गों से चलते हैं तथा जो क्रोधाग्नि से जलते रहने वाले कुटिल और कामपरायण हैं, वे सभी इस कलियुग में सप्ताह यज्ञ से पवित्र हो जाते हैं। जो सत्य से च्युत, माता-पिता की निन्दा करने वाले, तृष्णा के मारे व्याकुल, आश्रम धर्म से रहित, दम्भी, दूसरों की उन्नति देखकर कुढ़ने वाले और दूसरों को दुःख देने वाले हैं, वे भी कलियुग में सप्ताह यज्ञ से पवित्र हो जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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