श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 3 श्लोक 16-32

श्रीमद्भागवत माहात्म्य तृतीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत माहात्म्य (प्रथम खण्ड) तृतीय अध्यायः श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद

गंगा आदि नदियाँ, पुष्कर आदि सरोवर, कुरुक्षेत्र आदि समस्त क्षेत्र, सारी दिशाएँ, दण्डक आदि वन, हिमालय आदि पर्वत तथा देव, गन्धर्व और दानव आदि सभी कथा सुनने चले आये। जो लोग अपने गौरव के कारण नहीं आये, महर्षि भृगु उन्हें समझा-बुझाकर ले आये। तब कथा सुनाने के लिये दीक्षित होकर श्रीकृष्णपरायण सनकादि नारदजी के दिये हुए श्रेष्ठ आसन पर विराजमान हुए। उस समय सभी श्रोताओं ने उनकी वन्दना की। श्रोताओं में वैष्णव, विरक्त, संन्यासी और ब्रह्मचारी लोग आगे बैठे और उन सबके आगे नारदजी विराजमान हुए। एक ओर ऋषिगण, एक ओर देवता, एक ओर वेद और उपनिषदादि तथा एक ओर तीर्थ बैठे, और दूसरी ओर स्त्रियाँ बैठीं। उस समय सब ओर जय-जयकार, नमस्कार और शंखों का शब्द होने लगा और अबीर-गुलाल, खील एवं फूलों की खूब वर्षा होने लगी। कोई-कोई देवश्रेष्ठ तो विमानों पर चढ़कर वहाँ बैठे हुए सब लोगों पर कल्पवृक्ष के पुष्पों की वर्षा करने लगे।

सूतजी कहते हैं—इस प्रकार पूजा समाप्त होने पर जब सब लोग एकाग्रचित्त हो गये, तब सनकादि ऋषि महात्मा नारद को श्रीमद्भागवत का माहात्म्य स्पष्ट करके सुनाने लगे। सनकादि ने कहा—अब हम आपको इस भागवत शास्त्र की महिमा सुनाते हैं। इसके श्रवण मात्र से मुक्ति हाथ लग जाती है। श्रीमद्भागवत की कथा का सदा-सर्वदा सेवन, आस्वादन करना चाहिये। इसके श्रवण मात्र से श्रीहरि हृदय में आ विराजते हैं। इड ग्रन्थ में अठारह हजार श्लोक और बारह स्कन्ध हैं तथा श्रीशुकदेव और राजा परीक्षित् का संवाद है। आप यह भागवत शास्त्र ध्यान देकर सुनिये। यह जीव तभी तक अज्ञानवश इस संसार चक्र में भटकता है, जब तक क्षण भर के लिये भी कानों में इस शुकशास्त्र की कथा नहीं पड़ती। बहुत-से शास्त्र और पुराण सुनने से क्या लाभ है, इससे तो व्यर्थ का भ्रम बढ़ता है। मुक्ति देने के लिये तो एकमात्र भागवत शास्त्र ही गरज रहा है। जिस घर में नित्यप्रति श्रीमद्भागवत की कथा होती है, वह तीर्थरूप हो जाता है और जो लोग उसमें रहते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ इस शुकशास्त्र की कथा का सोलहवाँ अंश भी नहीं हो सकते। तपोधनो! जब तक लोग अच्छी तरह श्रीमद्भागवत का श्रवण नहीं करते, तभी तक उनके शरीर में पाप निवास करते हैं। फल की दृष्टि से इस शुकशास्त्र कथा की समता गंगा, गया, काशी, पुष्कर या प्रयाग—कोई तीर्थ भी नहीं कर सकता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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