श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 2 श्लोक 1-12

श्रीमद्भागवत माहात्म्य द्वितीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत माहात्म्य: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


यमुना और श्रीकृष्णपत्नियों का संवाद, कीर्तनोत्सव में उद्धव जी का प्रकट होना

ऋषियों ने पूछा- सूत जी! अब यह बतलाइये कि परीक्षित और वज्रनाभ को इस प्रकार आदेश देकर जब शाण्डिल्य मुनि अपने आश्रम को लौट गये, तब उन दोनों राजाओं ने कैसे-कैसे और कौन-कौन-सा काम किया?

सूत जी कहने लगे- तदनन्तर महाराज परीक्षित ने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) से हजारों बड़े-बड़े सेठों को बुलवाकर मथुरा में रहने की जगह दी। इनके अतिरिक्त सम्राट् परीक्षित ने मथुरामण्डल के ब्राह्मणों तथा प्राचीन वानरों को, जो भगवान के बड़े ही प्रेमी थे, बुलवाया और उन्हें आदर के योग्य समझकर मथुरा नगरी में बसाया। इस प्रकार राजा परीक्षित की सहायता और महर्षि शाण्डिल्य की कृपा से वज्रनाभ ने क्रमशः उन सभी स्थानों की खोज की, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रेमी गोप-गोपियों के साथ नाना प्रकार की लीलाएँ करते थे। लीला स्थानों का ठीक-ठीक निश्चय हो जाने पर उन्होंने वहाँ-वहाँ की लीला के अनुसार उस-उस स्थान का नामकरण किया, भगवान के लीलाविग्रहों की स्थापना की तथा उन-उन स्थानों पर अनेकों गाँव बसाये। स्थान-स्थान पर भगवान के नाम से कुण्ड और कुएँ खुदवाये। कुंज और बगीचे लगवाये, शिव आदि देवताओं की स्थापना की। गोविन्ददेव, हरिदेव आदि नामों से भगवद्विग्रह स्थापित किये। इन सब शुभ कर्मों के द्वारा द्वारा वज्रनाभ ने अपने राज्य में सब ओर एकमात्र श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचार किया और बड़े ही आनन्दित हुए। उनके प्रजाजनों को भी बड़ा आनन्द था, वे सदा भगवान के मधुर नाम तथा लीलाओं के कीर्तन में संलग्न हो परमानन्द के समुद्र में डूबे रहते थे और सदा ही वज्रनाभ के राज्य की प्रशंसा किया करते थे।

एक दिन भगवान श्रीकृष्ण की विरह-वेदना से व्याकुल सोलह हजार रानियाँ अपने प्रियतम पतिदेव की चतुर्थ पटरानी कालिन्दी (यमुना जी) को आनन्दित देखकर सरलभाव से उनसे पूछने लगीं। उनके मन में सौतिया डाह का लेश मात्र भी नहीं था। श्रीकृष्ण की रानियों ने कहा- 'बहिन कालिन्दी! जैसे हम सब श्रीकृष्ण की धर्मपत्नी हैं, वैसे ही तुम भी तो हो। हम तो उनकी विरहाग्नि में जली जा रही हैं, उनके वियोग-दुःख से हमारा हृदय व्यथित हो रहा है; किन्तु तुम्हारी यह स्थिति नहीं है, तुम प्रसन्न हो। इसका क्या कारण है? कल्याणी! कुछ बताओ तो सही।'

उनका प्रश्न सुनकर यमुना जी हँस पड़ीं। साथ ही यह सोचकर कि मेरे प्रियतम की पत्नी होने के कारण ये भी मेरी ही बहिनें हैं, पिघल गयीं; उनका हृदय दया से द्रवित हो उठा। अतः वे इस प्रकार कहने लगीं।

यमुना जी ने कहा- 'अपनी आत्मा में ही रमण करने के कारण भगवान श्रीकृष्ण आत्माराम हैं और उनकी आत्मा हैं-श्रीराधा जी। मैं दासी की भाँति राधा जी की सेवा करती रहती हूँ; उनकी सेवा का ही यह प्रभाव है कि विरह हमारा स्पर्श नहीं सकता। भगवान श्रीकृष्ण की जितनी भी रानियाँ हैं, सब-की-सब श्रीराधा जी के ही अंश का विस्तार हैं। भगवान श्रीकृष्ण और राधा सदा एक-दूसरे के सम्मुख हैं, उनका परस्पर नित्य संयोग है; इसलिये राधा के स्वरूप में अंशतः विद्यमान जो श्रीकृष्ण की अन्य रानियाँ हैं, उनको भी भगवान का नित्य संयोग प्राप्त है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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