श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 12-20

सप्तम स्कन्ध: नवमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 12-20 का हिन्दी अनुवाद


इसलिये सर्वथा अयोग्य और अनधिकारी होने पर भी मैं बिना किसी शंका के अपनी बुद्धि के अनुसार सब प्रकार से भगवान् की महिमा का वर्णन कर रहा हूँ। इस महिमा के गान का ही ऐसा प्रभाव है कि अविद्यावश संसारचक्र में पड़ा हुआ जीव तत्काल पवित्र हो जाता है।

भगवन! आप सत्त्वगुण के आश्रय हैं। ये ब्रह्मा आदि देवता आपके आज्ञाकारी भक्त हैं। ये हम दैत्यों की तरह आपसे द्वेष नहीं करते। प्रभो! आप बड़े-बड़े सुन्दर-सुन्दर अवतार ग्रहण करके इस जगत् के कल्याण एवं अभ्युदय के लिये तथा उसे आत्मानन्द की प्राप्ति कराने के लिये अनेकों प्रकार की लीलाएँ करते हैं। जिस असुर को मारने के लिये आपने क्रोध किया था, वह मारा जा चुका। अब आप अपना क्रोध शान्त कीजिये। जैसे बिच्छू और साँप की मृत्यु से सज्जन भी सुखी ही होते हैं, वैसे ही इस दैत्य के संहार से सभी लोगों को बड़ा सुख मिला है। अब सब आपके शान्त स्वरूप के दर्शन की बाट जोह रहे हैं।

नृसिंहदेव! भय से मुक्त होने के लिये भक्तजन आपके इस रूप का स्मरण करेंगे। परमात्मान्! आपका मुख बड़ा भयावना है। आपकी जीभ लपलपा रही है। आँखें सूर्य के समन हैं। भौंहें चढ़ी हुई हैं। बड़ी पैनी दाढ़ें हैं। आँतों की माला, खून से लथपथ गरदन के बाल, बर्छे की तरह सीधे खड़े कान और दिग्गजों को भी भयभीत कर देने वाला सिंहनाद एवं शत्रुओं को फाड़ डालने वाले आपके इन नखों को देखकर मैं तनिक भी भयभीत नहीं हुआ हूँ। दीनबन्धों! मैं भयभीत हूँ तो केवल इस असह्य और उग्र संसारचक्र में पिसने से। मैं अपने कर्मपाशों से बँधकर इन भयंकर जंतुओं के बीच में डाल दिया गया हूँ। मेरे स्वामी! आप प्रसन्न होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलों में बुलायेंगे, जो समस्त जीवों की एकमात्र शरण और मोक्षस्वरूप हैं?

अनन्त! मैं जिन-जिन योनियों में गया, उन सभी योनियों में प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग से होने वाले शोक की आग में झुलसता रहा। उन दुःखों को मिटाने की जो दवा है, वह भी दुःख रूप ही है। मैं न जाने कब से अपने से अतिरिक्त वस्तुओं को आत्मा समझकर इधर-उधर भटक रहा हूँ। अब आप ऐसा साधन बतलाइये जिससे कि आपकी सेवा-भक्ति प्राप्त कर सकूँ। प्रभो! आप हमारे प्रिय हैं। अहैतुक हितैषी सुहृद् हैं। आप ही वास्तव में सबके परमाराध्य हैं। मैं ब्रह्मा जी के द्वारा गायी हुई आपकी लीला-कथाओं का गान करता हुआ बड़ी सुगमता से रागादि प्राकृत गुणों से मुक्त होकर इस संसार की कठिनाइयों को पार कर लाऊँगा; क्योंकि आपके चरण युगलों में रहने वाले भक्त परमहंस महात्माओं का संग तो मुझे मिलता ही रहेगा।

भगवान् नृसिंह! इस लोक में दुःखी जीवों का दुःख मिटाने के लिये जो उपाय माना जाता है, वह आपके उपेक्षा करने पर एक क्षण के लिये ही होता है। यहाँ तक कि माँ-बाप बालक की रक्षा नहीं कर सकते, ओषधि रोग नहीं मिटा सकती और समुद्र में डूबते हुए को नौका नहीं बचा सकती। सत्त्वादि गुणों के कारण भिन्न-भिन्न स्वभाव के जितने भी ब्रह्मादि श्रेष्ठ और कालादि कनिष्ठ कर्ता हैं, उनको प्रेरित करने वाले आप ही हैं। वे आपकी प्रेरणा से जिस आधार में स्थित होकर जिस निमित्त से जिन मिट्टी आदि उपकरणों से जिस समय जिन साधनों के द्वारा जिस अदृष्ट आदि की सहायता से जिस प्रयोजन के उद्देश्य से जिस विधि से जो कुछ उत्पन्न करते हैं या रूपान्तरित करते हैं, वे सब और वह सब आपका ही स्वरूप है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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