सप्तम स्कन्ध: सप्तमोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद
आचार्यों ने मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्राएँ-इन आठ तत्त्वों को प्रकृति बतलाया है। उनके तीन गुण हैं-सत्त्व, रज और तम तथा उनके विकार हैं सोलह-दस इन्द्रियाँ, एक मन और पंचमहाभूत। इन सबमें एक पुरुषतत्त्व अनुगत है। इस सबका समुदाय ही देह है। यह दो प्रकार का है-स्थावर और जंगम। इसी में अन्तःकरण, इन्द्रिय आदि अनात्मवस्तुओं का ‘यह आत्मा नहीं है’-इस प्रकार बाध करते हुए आत्मा को ढूंढना चाहिये। आत्मा सबमें अनुगत है, परन्तु है वह सबसे पृथक्। इस प्रकार शुद्ध बुद्धि से धीरे-धीरे संसार की उत्पत्ति, स्थिति और उसके प्रलय पर विचार करना चाहिये। उतावली नहीं करनी चाहिये। जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति-ये तीनों बुद्धि की वृत्तियाँ हैं। इन अतीत, सबका साक्षी परमात्मा है। जैसे गन्ध से उसके आश्रय वायु का ज्ञान होता है, वैसे ही बुद्धि की इन कर्मजन्य एवं बदलने वाली तीनों अवस्थाओं के द्वारा इनमें साक्षीरूप से अनुगत आत्मा को जाने। गुणों और कर्मों के कारण होने वाला जन्म-मृत्यु का यह चक्र आत्मा को शरीर और प्रकृति से पृथक् न करने के कारण ही है। यह अज्ञानमूलक एवं मिथ्या है। फिर भी स्वप्न के समान जीव को इसकी प्रतीति हो रही है। इसलिये तुम लोगों को सबसे पहले इन गुणों के अनुसार होने वाले कर्मों का बीज ही नष्ट कर देना चाहिये। इससे बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह निवृत्त हो जाता है। इसी को दूसरे शब्दों में योग या परमात्मा से मिलन कहते हैं। यों तो इन त्रिगुणात्मक कर्मों की जड़ उखाड़ फेंकने के लिये अथवा बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह बंद कर देने के लिये सहस्रों साधन हैं; परन्तु जिस उपाय से और जैसे सर्वशक्तिमान् भगवान् में स्वाभाविक निष्काम प्रेम हो जाये, वही उपाय सर्वश्रेष्ठ है। यह बात स्वयं भगवान् ने कही है। गुरु की प्रेमपूर्वक सेवा, अपने को जो कुछ मिले वह सब प्रेम से भगवान् को समर्पित कर देना, भगवत्प्रेमी महात्माओं का सत्संग, भगवान् की आराधना, उनकी कथावार्ता में श्रद्धा, उनके गुण और लीलाओं का कीर्तन, उनके चरणकमलों का ध्यान और उनके मन्दिर, मूर्ति आदि का दर्शन-पूजन आदि साधनों से भगवान् में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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