श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 15-29

सप्तम स्कन्ध: तृतीयोऽध्याय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद


वहाँ जाने पर पहले तो वे उसे देख ही न सके; क्योंकि दीमक की मिट्टी, घास और बाँसों से उसका शरीर ढक गया था। चीटियाँ उसकी मेदा, त्वचा, मांस और खून चाट गयी थीं। बादलों से ढके हुए सूर्य के समान वह अपनी तपस्या के तेज से लोकों को तपा रहा था। उसको देखकर ब्रह्मा जी भी विस्मित हो गये। उन्होंने हँसते हुए कहा।

ब्रह्मा जी ने कहा- बेटा हिरण्यकशिपु! उठो, उठो। तुम्हारा कल्याण हो। कश्यपनन्दन! अब तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी। मैं तुम्हें वर देने के लिये आया हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, बेखट के माँग लो। मैंने तुम्हारे हृदय का अद्भुत बल देखा। अरे, डाँसों ने तुम्हारी देह खा डाली है। फिर भी तुम्हारे प्राण हड्डियों के सहारे टिके हुए हैं। ऐसी कठिन तपस्या न तो पहले किसी ऋषि ने की थी और न आगे ही कोई करेगा। भला ऐसा कौन है जो देवताओं के सौ वर्ष तक बिना पानी के जीता रहे।

बेटा हिरण्यकशिपु! तुम्हारा यह काम बड़े-बड़े धीर पुरुष भी कठिनता से कर सकते हैं। तुमने इस तपोनिष्ठा से मुझे अपने वश में कर लिया है। दैत्यशिरोमणे! इसी से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें जो कुछ मांगो, दिये देता हूँ। तुम हो मरने वाले और मैं हूँ अमर! अतः तुम्हें मेरा यह दर्शन निष्फल नहीं हो सकता।

नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! इतना कहकर ब्रह्मा जी ने उसके चींटियों से खाये हुए शरीर पर अपने कमण्डलु का दिव्य एवं अमोघ प्रभावशाली जल छिड़क दिया। जैसे लकड़ी के ढेर में से आग जल उठे, वैसे ही वह जल छिड़कते ही बाँस और दीमकों की मिट्टी के बीच से उठ खड़ा हुआ। उस समय उसका शरीर सब अवयवों से पूर्ण एवं बलवान् हो गया था, इन्द्रियों में शक्ति आ गयी थी और मन सचेत हो गया था। सारे अंग वज्र के समान कठोर एवं तपाये हुए सोने की तरह चमकीले हो गये थे। वह नवयुवक होकर उठ खड़ा हुआ। उसने देखा कि आकाश में हंस पर चढ़े हुए ब्रह्मा जी खड़े हैं। उन्हें देखकर उसे बड़ा आनन्द हुआ। अपना सिर पृथ्वी पर रखकर उसने उनको नमस्कार किया। फिर अंजलि बाँधकर नम्रभाव से खड़ा हुआ और बड़े प्रेम से अपने निर्निमेष नयनों से उन्हें देखता हुआ गद्गद वाणी से स्तुति करने लगा। उस समय उसके नेत्रों में आनन्द के आँसू उमड़ रहे थे और सारा शरीर पुलकित हो रहा था।

हिरण्यकशिपु ने कहा- कल्प के अन्त में यह सारी सृष्टि काल के द्वारा प्रेरित तमोगुण से, घने अन्धकार से ढक गयी थी। उस समय स्वयंप्रकाशस्वरूप आपने अपने तेज से पुनः इसे प्रकट किया। आप ही अपने त्रिगुणमयरूप से इसकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं। आप रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण के आश्रय हैं। आप ही सबसे परे और महान् हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आप ही जगत् के मूल कारण हैं। ज्ञान और विज्ञान आपकी मूर्ति हैं। प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि विकारों के द्वारा आपने अपने को प्रकट किया है। आप मुख्य प्राण सूत्रात्मा के रूप से चराचर जगत् को अपने नियन्त्रण में रखते हैं। आप ही प्रजा के रक्षक भी हैं। भगवन्! चित्त, चेतना, मन और इन्द्रियों के स्वामी आप ही हैं। पंचभूत, शब्दादि विषय और उनके संस्कारों के रचयिता भी महत्तत्त्व के रूप में आप ही हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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