श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 13-19

षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 13-19 का हिन्दी अनुवाद


इसलिये यमदूतो! तुम लोग अजामिल को मत ले जाओ। इसने सारे पापों का प्रायश्चित कर लिया है, क्योंकि इसने मरते समय[1] भगवान् के नाम का उच्चारण किया है। बड़े-बड़े महात्मा पुरुष यह बात जानते हैं कि संकेत में (किसी दूसरे अभिप्राय से), परिहास में, तान अलापने में अथवा किसी की अवहेलना करने में भी यदि कोई भगवान् के नामों का उच्चारण करता है तो, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य गिरते समय, पैर फिसलते समय, अंग-भंग होते समय और साँप के डंसते, आग में जलते तथा चोट लगते समय भी विवशता से ‘हरि-हरि’ कहकर भगवान् के नाम का उच्चारण कर लेता है, वह यमयातना का पात्र नहीं रह जाता। महर्षियों ने जान-बूझकर बड़े पापों के लिये बड़े और छोटे पापों के लिये छोटे प्रायश्चित बतलाये हैं। इसमें सन्देह नहीं कि उन तपस्या, दान, जप आदि प्रायश्चितों के द्वारा वे पाप नष्ट हो जाते हैं। परन्तु उन पापों से मलिन हुआ उसका हृदय शुद्ध नहीं होता। भगवान् के चरणों की सेवा से वह भी शुद्ध हो जाता है।

यमदूतो! जैसे जान या अनजान ईंधन से अग्नि का स्पर्श हो जाये तो वह भस्म हो ही जाता है, वैसे ही जान-बूझकर या अनजान में भगवान् के नामों का संकीर्तन करने से मनुष्य के सारे पाप भस्म हो जाते हैं। जैसे कोई परम शक्तिशाली अमृत को उसका गुण न जानकर अनजान में पी ले तो भी वह अवश्य ही पीने वाले को अमर बना देता है, वैसे ही अनजान में उच्चारण करने पर भी भगवान् का नाम[2] अपना फल देकर ही रहता है। (वस्तुशक्ति श्रद्धा की अपेक्षा नहीं करती)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पाप की निवृत्ति के लिये भगवन्नाम का एक अंश ही पर्याप्त है, जैसे ‘राम’ का ‘रा’। इसने तो सम्पूर्ण नाम का उच्चारण कर लिया। मरते समय का अर्थ ठीक मरने का क्षण ही नहीं है, क्योंकि मरने के क्षण जैसे कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि करने के लिये विधि नहीं हो सकती, वैसे नामोच्चारण भी नहीं है। इसलिये ‘म्रियमाण’ शब्द का यह अभिप्राय है कि अब आगे इससे कोई पाप होने की सम्भावना नहीं है।
  2. वस्तु की स्वाभाविक शक्ति इस बात की प्रतीक्षा नहीं करती कि यह मुझ पर श्रद्धा रखता है कि नहीं, जैसे अग्नि या अमृत।

    हरिर्हरति पापानि दुष्टचित्तैरपि स्मृत: अनिच्छयापि संस्पृष्टो दह्त्येव हि पावक:॥

    ‘दुष्टचित्त मनुष्य के द्वारा स्मरण किये जाने पर भी भगवान् श्रीहरि पापों को हर लेते हैं। अनजान में या अनिच्छा से स्पर्श करने पर भी अग्नि जलाती ही है।’

    भगवान् के नाम का उच्चारण केवल पाप को ही निवृत्त करता है, इसका और कोई फल नहीं है, यह धारणा भ्रमपूर्ण है; क्योंकि शास्त्र में कहा है-

    सकृदुच्चरितं येन हरिरित्यक्षरद्वयम्। बद्ध: परिकरस्तेन मोक्षाय गमनं प्रति॥

    ‘जिसने हरि’-ये दो अक्षर एक बार भी उच्चारण कर लिये, उसने मोक्ष प्राप्त करने के लिये परिकर बाँध लिया, फेंट कस ली।’ इस वचन से यह सिद्ध होता है कि भगवन्नाम मोक्ष का भी साधन है। मोक्ष के साथ-ही-साथ यह धर्म, अर्थ और काम का भी साधन है; क्योंकि ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनमें त्रिवर्ग-सिद्धि का भी नाम ही कारण बतलाया गया है-

    न गड़्गा न गयासेतुर्न काशी न च पुष्परम्। जिह्राग्रे वर्तते यस्य हरिरित्यक्षरद्वयम्।
    ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेद: सामवेदो ह्यथवर्ण:। अधितास्तेन येनोक्तं हरिरित्यक्षरद्वयम्॥
    अश्र्वमेधादिभिर्यज्ञैर्नरमेधै: सदक्षिणै: ।यजितं तेन येनोक्तं हरिरित्यक्षरद्वयम्।
    प्राणप्रयाणपाथेयं संसारव्याधिभेषजम्। दु:खक्केशपरित्राणं हरिरित्यक्षरद्वयम्॥

    ‘जिसकी जिह्वा के नोक पर ‘हरि’ ये दो अक्षर बसते हैं, उसे गंगा, गया, सेतुबन्ध, काशी और पुष्कर की कोई आवश्यकता नहीं, अर्थात् उनकी यात्रा, स्नान आदि का फल भगवन्नाम से ही मिल जाता है। जिसने ‘हरि’ इन दो अक्षरों का उच्चारण लिया, उसने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का अध्ययन कर लिया। जिसने ‘हरि’ ये दो अक्षर उच्चारण किये, उसने दक्षिणा के सहित अश्वमेध आदि यज्ञों के द्वारा यजन कर लिया। ‘हरि’ ये दो अक्षर मृत्यु के पश्चात् परलोक के मार्ग में प्रयाण करने वाले प्राणों के लिये पाथेय (मार्ग के लिये भोजन की सामग्री) हैं, संसाररूप रोग के लिये सिद्ध ओषध हैं और जीवन के दुःख और क्लेशों के लिये परित्राण हैं।’

    इन वचनों से यह सिद्ध होता है कि भगवन्नाम अर्थ, धर्म, काम-इन तीन वर्गों का भी साधक है। यह बात ‘हरि’, ‘नारायण’ आदि कुछ विशेष नामों के सम्बन्ध में ही नहीं है, प्रत्युत सभी नामों के सम्बन्ध में हैं; क्योंकि स्थान-स्थान पर यह बात सामान्य रूप से कही गयी है कि अनन्त के नाम, विष्णु के नाम, हरि के नाम इत्यादि। भगवान् के सभी नामों में एक ही शक्ति है।

    नाम-संकीर्तन आदि में वर्ण-आश्रम आदि का भी नियम नहीं है-

    ब्राह्यणा: क्षत्रिया वैश्या: स्त्रिय: सूद्रान्त्यजातय:
    यत्र तत्रानुकुर्वन्ति विष्णोर्नामानुकीर्ततम्। सर्वपापविनिर्मुक्तास्तेऽपि यांति सनातनम्॥

    ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शूद्र, अन्त्यज आदि जहाँ-तहाँ विष्णु भगवान् के नाम का अनुकीर्तन करते रहते हैं, वे भी समस्त पापों से मुक्त होकर सनातन परमात्मा को प्राप्त होते हैं।’

    नाम-संकीर्तन में देश-काल आदि के नियम भी नहीं हैं-

    यथा-

    न देशकालनियम: शौचाशौचविनिर्णय:। परं संकीर्तनादेव राम रामेति मुच्यते॥
    न देशनियमो राजन्न कालनियमस्तथा। विघते नात्र संदेहो विष्णोर्नामानुकीर्तन॥
    कालोऽस्ति यज्ञे दाने वा स्न्नाने कालोऽस्ति सज्ज्पे ।विष्णुसंकीर्तने कालो नास्त्य्त्र पृथिवीपते॥
    गच्छंस्तिष्ठन्स्वपन्वापि पिबन्भुञ्जञ्जपंस्तथा ।कृष्ण कृष्णेति संकिर्त्य मुच्यते पापकञ्चुकात् ॥

    अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा। य: स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतर शुचि:॥

    ‘देश-काल का नियम नहीं है, शौच-अशौच आदि का निर्णय करने की भी आवश्यकता नहीं है। केवल ‘राम-राम’ यह संकीर्तन करने मात्र से जीव मुक्त हो जाता है। भगवान् के नाम का संकीर्तन करने में न देश का नियम है और न काल का। इसमें कोई सन्देह नहीं। राजन्! यज्ञ, दान, तीर्थस्नान अथवा विधिपूर्वक जप के लिये शुद्ध काल की अपेक्षा है, परन्तु भगवन्नाम के इस संकीर्तन में काल-शुद्धि की कोई आवश्यकता नहीं है। चलते-फिरते, खड़े रहते-सोते, खाते-पीते और जप करते हुए भी ‘कृष्ण-कृष्ण’ ऐसा संकीर्तन करके मनुष्य पाप के केंचुक से छूट जाता है।

    अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा।
    य: स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:।

    अपवित्र हो या पवित्र-सभी अवस्थाओं में (चाहे किसी भी अवस्था में) जो कमलनयन भगवान् का स्मरण करता है, वह बाहर-भीतर पवित्र हो जाता है।

    कृष्णेति मग्ङलं नाम यस्य वाचि प्रवर्तते। भस्मीभवन्ति सघस्तु महापातककोटय:॥
    सर्वेषामपि यज्ञानां लक्षणानि व्रतानि च। तीर्थस्नानानि सर्वाणि तपांस्यनशनानि च।।
    वेदपाठसहस्राणि प्रादक्षिण्यं भुव: शतम्। कृष्णनामजपस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥

    ‘जिसकी जिह्वा पर ‘कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण’ यह मंगलमय नाम नृत्य करता रहता है, उसकी कोटि-कोटि महापातकराशि तत्काल भस्म हो जाती है। सारे यज्ञ, लाखों व्रत, सर्वतीर्थ-स्नान, तप, अनेकों उपवास, हजारों वेद-पाठ, पृथ्वी की सैकड़ों प्रदक्षिणा कृष्ण नाम-जप के सोलहवें इससे के बराबर भी नहीं हो सकतीं।’

    भगवन्नाम के कीर्तन में ही यह फल हो, सो बात नहीं। उनके श्रवण और स्मरण में भी वही फल है। दशम स्कन्ध के अन्त में कहेंगे ‘जिनके नाम का स्मरण और उच्चारण अमंगलघ्न हैं।’ शिवगीता और पद्मपुराण में कहा है‌‌‌‌-

    आश्चर्ये वा भये शोके क्षते वा मम नाम य:। व्याजेन वा स्मरेघस्तु स याति परमां गतिम्॥
    प्रयाणे चाप्रयाणे च यन्नाम स्मरतां नृणाम् ।सघो नश्यति पापौघो नमस्तस्मै चिदत्मने॥

    भगवान् कहते हैं कि आश्चर्य, भय, शोक, क्षत (चोट लगने) आदि के अवसर पर जो मेरा नाम बोल उठता है, या किसी व्याज से स्मरण करता है, वह परमगति को प्राप्त होता है। मृत्यु या जीवन-चाहे जब कभी भगवान् का नाम स्मरण करने वाले मनुष्यों की पापराशि तत्काल नष्ट हो जाती है। उन चिदात्मा प्रभु को नमस्कार है।’

    ‘इतिहासोत्तम’ में कहा गया है-

    श्रुत्वा नामानि तत्रस्थास्तेनोक्तानि हरेर्द्विज। नारका नारकान्मुक्त: सघ एव महामुने ॥

    ‘महामुनि ब्राह्मणदेव! भक्तराज के मुख से नरक में रहने वाले प्राणियों ने श्रीहरि के नाम का श्रवण किया और वे तत्काल नरक से मुक्त हो गये।’

    यज्ञ-यागादिरूप धर्म अपने अनुष्ठान के लिये जिस पवित्र देश, काल, पात्र, शक्ति, सामग्री, श्रद्धा, मन्त्र, दक्षिणा आदि की अपेक्षा रखता है, इस कलियुग में उसका सम्पन्न होना अत्यन्त कठिन है। भगवन्नामसंकीर्तन के द्वारा उसका फल अनायास ही प्राप्त किया जाता जा सकता है। भगवान् शंकर पार्वती के प्रति कहते हैं-

    ईशोऽहं सर्वजगतां नाम्नां विष्णोर्हि जापक:। सत्यं सत्यं वदाम्येव हरेर्नान्या गतिर्नृणाम्‌॥

    ‘सम्पूर्ण जगत् का स्वामी होने पर भी मैं विष्णु भगवान् के नाम का ही जप करता हूँ। मैं तुमसे सत्य-सत्य कहता हूँ, भगवान् को छोड़कर जीवों के लिये अन्य कर्मकाण्ड आदि कोई भी गति नहीं है।’ श्रीमद्भागवत में ही यह बात आगे आने वाली है कि सत्ययुग में ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से और द्वापर में अर्चा-पूजा से जो फल मिलता है, कलियुग में वह केवल भगवन्नाम से मिलता है। और भी है कि कलियुग दोषों का निधि है, परन्तु इसमें एक महान् गुण यह है कि श्रीकृष्ण-संकीर्तनमात्र से ही जीव बन्धनमुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।

    इस बार एक बार के नामोच्चारण की भी अनन्त महिमा शास्त्रों में कही गयी है। यहाँ मूल प्रसंग में ही- ‘एकदापि’ कहा गया है; ‘सकृदुच्चरितम्’ का उल्लेख किया जा चुका है। बार-बार जो नामोच्चारण का विधान है, वह आगे और पाप न उत्पन्न हो जायें, इसके लिये है। ऐसे भी वचन मिलते हैं कि भगवान् के नाम का उच्चारण करने से भूत, वर्तमान और भविष्य के सारे ही पाप भस्म हो जाते हैं, यथा-

    वर्तमानं च यत् पापं यद् भूतं यद् भविष्यति। तत्सर्वं निर्दहत्याशु गोविन्दानल कीर्तनम्॥

    फिर भी भगवत्प्रेमी जीव को पापों के नाश पर अधिक दृष्टि नहीं रखनी चाहिये; उसे तो भक्ति-भाव की दृढ़ता के लिये, भगवान् के चरणों में अधिकाधिक प्रेम बढ़ता जाये, इस दृष्टि से अहिर्निश नित्य-निरन्तर भगवान् के मधुर-मधुर नाम जपते जाना चाहिये। जितनी अधिक निष्कामता होगी, उतनी-ही-उतनी नाम की पूर्णता प्रकट होती जायेगी, अनुभव में आती जायेगी। अनेक तार्किकों के मन में यह कल्पना उठती है कि नाम की महिमा वास्तविक नहीं है, अर्थवादमात्र है। उनके मन में यह धारणा तो हो ही जाती है कि शराब की एक बूँद भी पतित बनाने के लिये पर्याप्त है, परंतु यह विश्वास नहीं होता कि भगवान् का एक नाम भी परम कल्याणकारी है। शास्त्रों में भगवन्नाम-महिमा को अर्थवाद समझना पाप बताया है।

    पुराणेव्षर्थवाद्त्वं ये वदन्ति नराधमा:। तैरर्जितानि पुण्यानि तद्वदेव भवन्ति हि॥

    मन्नामकीर्तनफलं विविधं निश्म्य न श्रद्दधाति मनुते यदुतार्थवादम् ।
    यो मानुषस्तमिह दु:खचये क्षिपामि संसारघोरविविधार्तिनिपीडिताग्ङम्॥
    अर्थवादं हरेर्नाम्रि सभावयन्ति यो नर:। स पापिष्ठो मनुष्याणां नरके पातति स्फुटम्॥

    ‘जो नराधम पुराणों में अर्थवाद की कल्पना करते हैं, उनके द्वारा उपार्जित पुण्य वैसे ही हो जाते हैं।’

    ‘जो मनुष्य मेरे नाम-कीर्तन के विविध फल सुनकर उस पर श्रद्धा नहीं करता और उसे अर्थवाद मानता है, उसको संसार के विविध घोर तापों से पीड़ित होना पड़ता है और उसे मैं अनेक दुःखों में डाल देता हूँ।'

    ‘जो मनुष्य भगवान् के नाम में अर्थवाद की सम्भावना करता है, वह मनुष्यों में अत्यन्त पापी है और उसे नरक में गिरना पड़ता है।’

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