श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 13-26

षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 13-26 का हिन्दी अनुवाद


जैसे बाँसों के झुरमुट में लगी आग बाँसों को जला डालती है, वैसे ही धर्मज्ञ और श्रद्धावान् धीर पुरुष तपस्या, ब्रह्मचर्य, इन्द्रियदमन, मन की स्थिरता, दान, सत्य, बाहर-भीतर की पवित्रता तथा यम एवं नियम-इन नौ साधनों से मन, वाणी और शरीर द्वारा किये गये बड़े-से-बड़े पापों को भी नष्ट कर देते हैं। भगवान् की शरण में रहने वाले भक्तजन, जो बिरले ही होते हैं, केवल भक्ति के द्वारा अपने सारे पापों को उसी प्रकार भस्म कर देते हैं, जैसे सूर्य कुहरे को।

परीक्षित! पापी पुरुष की जैसी शुद्धि भगवान् को आत्मसमर्पण करने से और उनके भक्तों का सेवन करने से होती है, वैसी तपस्या आदि के द्वारा नहीं होती। जगत् में यह भक्ति का पंथ ही सर्वश्रेष्ठ, भयरहित और कल्याणस्वरूप है; क्योंकि इस मार्ग पर भगवत्परायण, सुशील साधुजन चलते हैं। परीक्षित! जैसे शराब से भरे घड़े को नदियाँ पवित्र नहीं कर सकतीं, वैसे ही बड़े-बड़े प्रायश्चित बार-बार किये जाने पर भी भाग्वाद्विमुख मनुष्य को पवित्र करने में असमर्थ हैं। जिन्होंने अपने भगवद्गुणानुरागी मन-मधुकर को भगवान् श्रीकृष्ण के चरणारविन्द-मकरन्द का एक बार पान करा दिया, उन्होंने सारे प्रायश्चित कर लिये। वे स्वप्न में भी यमराज और उनके पाशधारी दूतों को नहीं देखते। फिर नरक की तो बात ही क्या है।

परीक्षित! इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। उसमें भगवान् विष्णु और यमराज के दूतों का संवाद है। तुम मुझसे उसे सुनो।

कान्यकुब्ज नगर (कन्नौज) में एक दासीपति ब्राह्मण रहता था। उसका नाम था अजामिल। दासी के संसर्ग से दूषित होने के कारण उसका सदाचार नष्ट हो चुका था। वह पतित कभी बटोहियों को बाँधकर उन्हें लूट लेता, कभी लोगों को जुए में छल से हरा देता, किसी का धन धोखा-धड़ी से ले लेता तो किसी का चुरा लेता। इस प्रकार अत्यन्त निन्दनीय वृत्ति का आश्रय लेकर वह कुटुम्ब का पेट भरता था और दूसरे प्राणियों को बहुत ही सताता था। परीक्षित! इसी प्रकार वह वहाँ रहकर दासी के बच्चों का लालन-पालन करता रहा। इस प्रकार उसकी आयु का बहुत बड़ा भाग-अट्ठासी वर्ष बीत गया। बूढ़े अजामिल के के दस पुत्र थे। उनमें सबसे छोटे का नाम था ‘नारायण’। माँ-बाप उससे बहुत प्यार करते थे। वृद्ध अजामिल ने अत्यन्त मोह के कारण अपना सम्पूर्ण हृदय अपने बच्चे नारायण को सौंप दिया था। वह अपने बच्चे की तोतली बोली सुन-सुनकर तथा बाल सुलभ खेल देख-देखकर फूला नहीं समाता था। अजामिल बालक के स्नेह-बन्धन में बँध गया था। जब वह खाता तब उसे भी खिलाता, जब पानी पीता तो उसे भी पिलाता। इस प्रकार वह अतिशय मूढ़ हो गया था, उसे इस बात का पता ही न चला कि मृत्यु मेरे सिर पर आ पहुँची है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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