श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 17-30

षष्ठ स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद


अंगिरा ऋषि ने कहा- राजन! तुम अपनी प्रकृतियों-गुरु, मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, सेना और मित्र के साथ सकुशल तो हो न? जैसे जीव महत्तत्त्वादि सात आवरणों से घिरा रहता है, वैसे ही राजा भी इन सात प्रकृतियों से घिरा रहता है। उनके कुशल से ही राजा की कुशल है। नरेन्द्र! जिस प्रकार राजा अपनी उपर्युक्त प्रकृतियों के अनुकूल रहने पर ही राज्य सुख भोग सकता है, वैसे ही प्रकृतियाँ भी अपनी रक्षा का भार राजा पर छोड़कर सुख और समृद्धि लाभ कर सकती हैं।

राजन! तुम्हारी रानियाँ, प्रजा, मन्त्री (सलाहकार), सेवक, व्यापारी, अमात्य (दीवान), नागरिक, देशवासी, मण्डलेश्वर राजा और पुत्र तुम्हारे वश में तो हैं न? सच्ची बात तो यह है कि जिसका मन अपने वश में है, उसके ये सभी वश में होते हैं। इतना ही नहीं, सभी लोक और लोकपाल भी बड़ी सावधानी से उसे भेंट देकर उसकी प्रसन्नता चाहते हैं। परन्तु मैं देख रहा हूँ कि तुम स्वयं सतुष्ट नहीं हो। तुम्हारी कोई कामना अपूर्ण है। तुम्हारे मुँह पर किसी आन्तरिक चिन्ता के चिह्न झलक रहे हैं। तुम्हारे इस असन्तोष का कारण कोई और है या स्वयं तुम्हीं हो?

परीक्षित! महर्षि अंगिरा यह जानते थे कि राजा के मन में किस बात की चिन्ता है। फिर भी उन्होंने उनसे चिन्ता के सम्बन्ध में अनेकों प्रश्न पूछे। चित्रकेतु को सन्तान की कामना थी। अतः महर्षि के पूछने पर उन्होंने विनय से झुककर निवेदन किया।

सम्राट् चित्रकेतु ने कहा- भगवन्! जिन योगियों के तपस्या, ज्ञान, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा सारे पाप नष्ट हो चुके हैं-उनके लिये प्राणियों के बाहर या भीतर की ऐसी कौन-सी बात है, जिसे वे न जानते हों। ऐसा होने पर भी जब आप सब कुछ जान-बूझकर मुझसे मेरे मन की चिन्ता पूछ रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञा और प्रेरणा से अपनी चिन्ता आपके चरणों में निवेदन करता हूँ। मुझे पृथ्वी का साम्राज्य, ऐश्वर्य और सम्पत्तियाँ, जिनके लिये लोकपाल भी लालायित रहते हैं, प्राप्त हैं। परन्तु सन्तान न होने के कारण मुझे इन सुख भोगों से उसी प्रकार तनिक भी शान्ति नहीं मिल रही है, जैसे भूखे-प्यासे प्राणी को अन्न-जल के सिवा दूसरे भोगों से। महाभाग्यवान् महर्षे! मैं तो दुःखी हूँ ही, पिण्डदान न मिलने की आशंका से मेरे पितर भी दुःखी हो रहे हैं। अब आप हमें सन्तान-दान करके परलोक में प्राप्त होने वाले घोर नरक से उबारिये और ऐसी व्यवस्था कीजिये कि मैं लोक-परलोक के सब दुःखों से छुटकारा पा लूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब राजा चित्रकेतु ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब सर्वसमर्थ एवं परमकृपालु ब्रह्मपुत्र भगवान् अंगिरा ने त्वष्टा देवता के योग्य चरु निर्माण करके उससे उनका यजन किया। परीक्षित! राजा चित्रकेतु की रानियों में सबसे बड़ी और सद्गुणवती महारानी कृतद्युति थीं। महर्षि अंगिरा ने उन्हीं को यज्ञ का अवशेष प्रसाद दिया और राजा चित्रकेतु से कहा- ‘राजन्! तुम्हारी पत्नी के गर्भ से एक पुत्र होगा, जो तुम्हें हर्ष और शोक दोनों ही देगा।’ यों कहकर अंगिरा ऋषि चले गये। उस यज्ञाशेष प्रसाद के खाने से ही महारानी कृतद्युति ने महाराज चित्रकेतु के द्वारा गर्भ धारण किया, जैसे कृत्तिका ने अपने गर्भ में अग्नि कुमार को धारण किया था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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