षष्ठ स्कन्ध: दशम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद
परीक्षित! उस समय देवताओं की सेना स्वयं मृत्यु के लिये भी अजेय थी। वे घमंडी असुर सिंहनाद करते हुए बड़ी सावधानी से देवसेना पर प्रहार करने लगे। उन लोगों ने गदा, परिघ, बाण, प्रास, मुद्गर, तोमर, शूल, फरसे, तलवार, शतघ्नी (तोप), भुशुण्डि आदि अस्त्र-शस्त्रों की बौछार से देवताओं को सब ओर से ढक दिया। एक-पर-एक इतने बाण चारों ओर से आ रहे थे कि उनसे ढक जाने के कारण देवता दिखलायी भी नहीं पड़ते थे-जैसे बादलों से ढक जाने पर आकाश के तारे नहीं दिखायी देते। परीक्षित! वह शस्त्रों और अस्त्रों की वर्षा देवसैनिकों को छू तक न सकी। उन्होंने अपने हस्तलाघव से आकाश में ही उनके हजार-हजार टुकड़े कर दिये। जब असुरों के अस्त्र-शस्त्र समाप्त हो गये, तब वे देवताओं की सेना पर पर्वतों के शिखर, वृक्ष और पत्थर बरसाने लगे। परन्तु देवताओं ने उन्हें पहले की ही भाँति काट गिराया। परीक्षित! जब वृत्रासुर के अनुयायी असुरों ने देखा कि उनके असंख्य अस्त्र-शस्त्र भी देवसेना का कुछ न बिगाड़ सके-यहाँ तक कि वृक्षों, चट्टानों और पहाड़ों के बड़े-बड़े शिखर से भी उनके शरीर पर खरोंच तक नहीं आयी, सब-के-सब सकुशल हैं, तब तो वे बहुत डर गये। दैत्य लोग देवताओं को पराजित करने के लिये जो-जो प्रयत्न करते, वे सब-के-सब निष्फल हो जाते-ठीक वैसे ही, जैसे भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित भक्तों पर क्षुद्र मनुष्यों के कठोर और अमंगलमय दुर्वचनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। भगवद्विमुख असुर अपना प्रयत्न व्यर्थ देखकर उत्साहरहित हो गये। उनका वीरता का घमंड जाता रहा। अब वे अपने सरदार वृत्रासुर को युद्धभूमि में ही छोड़कर भाग खड़े हुए; क्योंकि देवताओं ने उनका सारा बल-पौरुष छीन लिया था। जब धीर-वीर वृत्रासुर ने देखा कि मेरे अनुयायी असुर भाग रहे हैं और अत्यन्त भयभीत होकर मेरी सेना भी तहस-नहस और तितर-बितर हो रही है, तब वह हँसकर कहने लगा। वीरशिरोमणि वृत्रासुर ने समयानुसार वीरोचित वाणी से विप्रचित्ति, नमुचि, पुलोमा, मय, अनर्वा, शम्बर आदि दैत्यों को सम्बोधित करके कहा- ‘असुरों! भागो मत, मेरी एक बात सुन लो। इसमें सन्देह नहीं कि जो पैदा हुआ है, उसे एक-न-एक दिन अवश्य मरना पड़ेगा। इस जगत् में विधाता ने मृत्यु से बचने का कोई उपाय नहीं बताया है। ऐसी स्थिति में यदि मृत्यु के द्वारा स्वर्गादि लोक और सुयश भी मिल रहा हो तो ऐसा कौन बुद्धिमान् है, जो उस उत्तम मृत्यु को न अपनायेगा। संसार में दो प्रकार की मृत्यु परम दुर्लभ और श्रेष्ठ मानी गयी है-एक तो योगी पुरुष का अपने प्राणों को वश में करके ब्रह्मचिन्तन के द्वारा शरीर का परित्याग और दूसरा युद्धभूमि में सेना के आगे रहकर बिना पीठ दिखाये जूझ मरना (तुम लोग भला, ऐसा शुभ अवसर क्यों खो रहे हो)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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