श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 17-20

पंचम स्कन्ध: नवम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 17-20 का हिन्दी अनुवाद


चोर स्वभाव से तो रजोगुणी-तमोगुणी थे ही, धन के मद से उनका चित्त और भी उन्मत्त हो गया था। हिंसा में भी उनकी स्वाभाविक रुचि थी। इस समय तो वे भगवान् के अंशस्वरूप ब्राह्मण कुल का तिरस्कार करके स्वच्छन्दता से कुमार्ग की ओर बढ़ रहे थे। आपत्ति काल में भी जिस हिंसा का अनुमोदन किया गया है, उसमें भी ब्रह्माण वध का सर्वथा निषेध है, तो भी वे साक्षात् ब्रह्मभाव को प्राप्त हुए वैरहीन तथा समस्त प्राणियों के सुहृद् एक ब्रह्मर्षिकुमार की बलि देना चाहते थे।

यह भयंकर कुकर्म देखकर देवी भद्रकाली के शरीर में अति दुःसह ब्रह्मतेज से दाह होने लगा और वे एकाएक मूर्ति को फोड़कर प्रकट हो गयीं। अत्यन्त असहनशीलता और क्रोध के कारण उनकी भौंहें चढ़ी हुई थीं तथा कराल दाढ़ों और चढ़ी हुई लाल आँखों के कारण उनका चेहरा बड़ा भयानक जान पड़ता था। उनके उस विकराल वेष को देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो वे इस संसार का संहार कर डालेंगी। उन्होंने क्रोध से तड़ककर बड़ा भीषण अट्टहास किया और उछलकर उस अभिमन्त्रित खड्ग से ही उन सारे पापियों के सिर उड़ा दिये और अपने गणों के सहित उनके गले से बहता हुआ गरम-गरम रुधिररूप आसव पीकर अति उन्मत्त हो ऊँचे स्वर से गाती और नाचती हुई उन सिरों को ही गेंद बनाकर खेलने लगीं। सच है, महापुरुषों के प्रति किया हुआ अत्याचाररूप अपराध इसी प्रकार ज्यों-का-त्यों अपने ही ऊपर पड़ता है।

परीक्षित! जिनकी देहाभिमानरूप सुदृढ़ हृदयग्रन्थि छूट गयी है, जो समस्त प्राणियों के सुहृद् एवं आत्मा तथा वैरहीन हैं, साक्षात् भगवान् ही भद्रकाली आदि भिन्न-भिन्न रूप धारण करके अपने कभी न चूकने वाले कालचक्ररूप श्रेष्ठ शस्त्र से जिनकी रक्षा करते हैं और जिन्होंने भगवान् के निर्भय चरणकमलों का आश्रय ले रखा है-उन भगवद्भक्त परमहंसों के लिये अपना सिर कटने का अवसर आने पर भी किसी प्रकार व्याकुल न होना-यह कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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