श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 8-14

पंचम स्कन्ध: सप्तम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 8-14 का हिन्दी अनुवाद


इस प्रकार एक करोड़ वर्ष निकल जाने पर उन्होंने राज्यभोग का प्रारब्ध क्षीण हुआ जानकर अपनी भोगी हुई वंशपरम्परागत सम्पत्ति को यथायोग्य पुत्रों में बाँट दिया। फिर अपने सर्वसम्पत्तिसम्पन्न राजमहल से निकालकर वे पुलहाश्रम (हरिहरक्षेत्र) में चले आये। इस पुलहाश्रम में रहने वाले भक्तों पर भगवान् का बड़ा ही वात्सल्य है। वे आज भी उनसे उनके इष्टरूप में मिलते रहते हैं। वहाँ चक्रनदी (गण्डकी) नाम की प्रसिद्ध सरिता चक्राकार शालग्राम-शिलाओं से, जिनके ऊपर-नीचे दोनों ओर नाभि के समान चिह्न होते हैं, सब ओर से ऋषियों के आश्रमों को पवित्र करती रहती है।

उस पुलहाश्रम के उपवन में एकान्त स्थान में अकेले ही रहकर वे अनेक प्रकार के पत्र, पुष्प, तुलसीदल, जल और कन्द-मूल-फलादि उपहारों से भगवान् की आराधना करने लगे। इससे उनका अन्तःकरण समस्त विषयाभिलाषाओं से निवृत्त होकर शान्त हो गया और उन्हें परमआनन्द हुआ।

इस प्रकार जब वे नियमपूर्वक भगवान् की परिचर्या करने लगे, तब उससे प्रेम का वेग बढ़ता गया-जिससे उनका हृदय द्रवीभूत होकर शान्त हो गया, आनन्द के प्रबल वेग से शरीर में रोमांच होने लगा तथा उत्कण्ठा के कारण नेत्रों में प्रेम के आँसू उमड़ आये, जिससे उनकी दृष्टि रुक गयी। अन्त में जब अपने प्रियतम के अरुण चरणारविन्दों के ध्यान से भक्तियोग का आविर्भाव हुआ, तब परमानन्द से सराबोर हृदयरूप गम्भीर सरोवर में बुद्धि के डूब जाने से उन्हें उस नियमपूर्वक की जाने वाली भगवत्पूजा का भी स्मरण न रहा। इस प्रकार वे भगवत्सेवा के नियम में ही तत्पर रहते थे, शरीर पर कृष्ण मृगचर्म धारण करते थे तथा त्रिकाल स्नान के कारण भीगते रहने से उनके केश भूरी-भूरी घुँघराली लटों में परिणत हो गये थे, जिनसे वे बड़े ही सुहावने लगते थे।

वे उदित हुए सूर्यमण्डल में सूर्यसम्बन्धिनी ऋचाओं द्वारा ज्योतिर्मय परमपुरुष भगवान् नारायण की आराधना करते और इस प्रकार कहते- ‘भगवान् सूर्य का कर्म फलदायक तेज प्रकृति से परे हैं। उसी ने संकल्प द्वारा इस जगत् की उत्पत्ति की है। फिर वही अन्तर्यामी रूप से इसमें प्रविष्ट होकर अपनी चित्-शक्ति द्वारा विषयलोलुप जीवों की रक्षा करता है। हम उसी बुद्धिप्रवर्तक तेज की शरण लेते हैं’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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