श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 20 श्लोक 37-46

पंचम स्कन्ध: विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 37-46 का हिन्दी अनुवाद


उसे परमात्मा ने त्रिलोकी के बाहर उसके चारों ओर सीमा के रूप में स्थापित किया है। यह इतना ऊँचा और लम्बा है कि इसके एक ओर से तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाली सूर्य से लेकर ध्रुवपर्यन्त समस्त ज्योतिर्मण्डल की किरणें दूसरी ओर नहीं जा सकतीं।

विद्वानों ने प्रमाण, लक्षण और स्थिति के अनुसार सम्पूर्ण लोकों का इतना ही विस्तार बतलाया है। यह समस्त भूगोल पचास करोड़ योजन है। इसका चौथाई भाग (अर्थात् साढ़े बारह करोड़ योजन विस्तार वाला) यह लोकालोक पर्वत है। इसके ऊपर चारों दिशाओं में समस्त संसार के गुरु स्वयम्भू श्रीब्रह्मा जी ने सम्पूर्ण लोकों की स्थिति के लिये ऋषभ, पुष्करचूड, वामन और अपराजित नाम के चार गजराज नियुक्त किये हैं। इन दिग्गजों की और अपने अंशस्वरूप इन्द्रादि लोकपालों की विविध शक्तियों की वृद्धि तथा समस्त लोकों के कल्याण के लिये परम ऐश्वर्य के अधिपति सर्वान्तर्यामी परमपुरुष श्रीहरि अपने विष्वक्सेन आदि पार्षदों के सहित इस पर्वत पर सब ओर विराजते हैं। वे अपने विशुद्ध सत्त्व (श्रीविग्रह) को जो धर्म, ज्ञान वैराग्य और ऐश्वर्य आदि आठ महासिद्धियों से सम्पन्न है धारण किये हुए हैं। उनके करकमलों में शंख-चक्रादि आयुध सुशोभित हैं।

इस प्रकार योगमाया से रचे हुए विविध लोकों की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिये वे इसी लीलामयरूप से कल्प के अन्त तक वहाँ सब ओर रहते हैं। लोकालोक के अन्तरवर्ती भूभाग का जितना विस्तार है, उसी से उसके दूसरी ओर के अलोक प्रदेश के परीमाण की भी व्याख्या समझ लेनी चाहिये। उसके आगे तो केवल योगेश्वरों की ही ठीक-ठीक गति हो सकती है।

राजन्! स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में जो ब्रह्माण्ड का केन्द्र है, वही सूर्य की स्थिति है। सूर्य और ब्रह्माण्ड गोलक के बीच में सब ओर से पच्चीस करोड़ योजन का अन्तर है। सूर्य इस मृत अर्थात् मरे हुए (अचेतन) अण्ड में वैराज रूप से विराजते हैं, इसी से इनका नाम ‘मार्तण्ड’ हुआ है। ये ‘हिरण्यमय (ज्योतिर्मय) ब्रह्माण्ड से प्रकट हुए हैं, इसलिये इन्हें 'हिरण्यगर्भ’ भी कहते हैं। सूर्य के द्वारा ही दिशा, आकाश, द्युलोक (अन्तरिक्ष लोक), भूर्लोक, स्वर्ग और मोक्ष के प्रदेश, नरक और रसातल तथा अन्य समस्त भोगों का विभाग होता है। सूर्य ही देवता, त्रिर्यक्, मनुष्य, सरीसृप और लता-वृक्षादि समस्त जीव समूहों के आत्मा और नेत्रेन्द्रिय के अधिष्ठाता हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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