पंचम स्कन्ध: अष्टादश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 33-39 का हिन्दी अनुवाद
उत्तर कुरुवर्ष में भगवान् यज्ञपुरुष वराह मूर्ति धारण करके विराजमान हैं। वहाँ के निवासियों के सहित साक्षात् पृथ्वी देवी उनकी अविचल भक्तिभाव से उपासना करती और इस परमोत्कृष्ट मन्त्र का जप करती हुई स्तुति करती हैं- ‘जिनका तत्त्व मन्त्रों से जाना जाता है, जो यज्ञ और क्रतुरूप हैं तथा बड़े-बड़े यज्ञ जिनके अंग हैं- उन ओंकारस्वरूप शुक्लकर्ममय त्रियुगमूर्ति पुरुषोत्तम भगवान् वराह को बार-बार नमस्कार है’। ‘ऋत्विज्गण जिस प्रकार अरणिरूप काष्ठ खण्डों में छिपी हुई अग्नि को मन्थन द्वारा प्रकट करते हैं, उसी प्रकार कर्मासक्ति एवं कर्मफल की कामनाओं से छिपे हुए जिनके रूप को देखने की इच्छा से परम प्रवीण पण्डितजन अपने विवेकयुक्त मनरूप मन्थन काष्ठ से शरीर एवं इन्द्रियादि को बिलो डालते हैं। इस प्रकार मन्थन करने पर अपने स्वरूप को प्रकट करने वाले आपको नमसकर है। विचार तथा यम-नियमादि योगांगों के साधन से जिनकी बुद्धि निश्चयात्मिक हो गयी है- वे महापुरुष द्रव्य (विषय), क्रिया (इन्द्रियों के व्यापार), हेतु (इन्द्रियाधिष्ठाता देवता), अयन (शरीर), ईश, काल और कर्ता (अहंकार) आदि माया के कार्यों को देखकर जिनके वास्तविक स्वरूप का निश्चय करते हैं और ऐसे मायिक आकृतियों से रहित आपको बार-बार नमस्कार है। जिस प्रकार लोहा जड होने पर भी चुम्बक की सन्निधिमात्र से चलने-फिरने लगता है, उसी प्रकार जिन सर्वसाक्षी की इच्छामात्र से- जो अपने लिये नहीं, बल्कि समस्त प्राणियों के लिए होती है- प्रकृति अपने गुणों के द्वारा जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करती रहती है; ऐसे सम्पूर्ण गुणों एवं कर्मों के साक्षी आपको नमस्कार है। आप जगत् के कारणभूत आदि सूकर हैं। जिस प्रकार एक हाथी दूसरे हाथी को पछाड़ देता है, उसी प्रकार गजराज के समान क्रीड़ा करते हुए आप युद्ध में अपने प्रतिद्वन्दी हिरण्याक्ष दैत्य को दलित करके मुझे अपनी दाढ़ों की नोक पर रख कर रसातल से प्रलयपयोधि के बाहर निकले थे। मैं आप सर्वशक्तिमान् प्रभु को बार-बार नमस्कार करती हूँ’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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