श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 42-49

नवम स्कन्ध: सप्तमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 42-49 का हिन्दी अनुवाद


युद्ध में उन्हें कोई जीत नहीं सकता था। उन्होंने देवताओं की प्रार्थना से दैत्यों का वध किया था। जब उन्हें देवताओं से यह मालूम हुआ कि अब मेरी आयु केवल दो ही घड़ी बाकी है, तब वे अपनी राजधानी लौट आये और अपने मन को उन्होंने भगवान् में लगा दिया। वे मन-ही-मन सोचने लगे कि ‘मेरे कुल के इष्ट देवता हैं ब्राह्मण! उनसे बढ़कर मेरा प्रेम अपने प्राणों पर भी नहीं है। पत्नी, पुत्र, लक्ष्मी, राज्य और पृथ्वी भी मुझे उतने प्यारे नहीं लगते। मेरा मन बचपन में भी कभी अधर्म की ओर नहीं गया। मैंने पवित्र कीर्ति भगवान् के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु कहीं नहीं देखी। तीनों लोकों के स्वामी देवताओं ने मुझे मुँहमाँगा वर देने को कहा, परन्तु मैंने उन भोगों की लालसा बिल्कुल नहीं की। क्योंकि समस्त प्राणियों के जीवनदाता श्रीहरि की भावना में ही मैं मग्न हो रहा था।

जिन देवताओं की इन्द्रियाँ और मन विषयों में भटक रहे हैं, वे सत्त्वगुण प्रधान होने पर भी अपने हृदय में विराजमान, सदा-सर्वदा प्रियतम के रूप में रहने वाले अपने आत्मस्वरूप भगवान् को नहीं जानते। फिर भला जो रजोगुणी और तमोगुणी हैं, वे तो जान ही कैसे सकते हैं। इसलिये अब इन विषयों में मैं नहीं रमता। ये तो माया के खेल हैं। आकाश में झूठ-मूठ प्रतीत होने वाले गन्धर्व नगरों से बढ़कर इनकी सत्ता नहीं है। ये तो अज्ञानवश चित्त पर चढ़ गये थे। संसार के सच्चे रचयिता भगवान् की भावना में लीन होकर मैं विषयों को छोड़ रहा हूँ और केवल उन्हीं की शरण ले रहा हूँ।

परीक्षित! भगवान् ने राजा खट्वांग की बुद्धि को पहले से ही अपनी ओर आकर्षित कर रखा था। इसी से वे अन्त समय में ऐसा निश्चय कर सके। अब उन्होंने शरीर आदि अनात्म पदार्थों में जो अज्ञानमूलक आत्मभाव था, उसका परित्याग कर दिया और अपने वास्तविक आत्मस्वरूप में स्थित हो गये। वह स्वरूप साक्षात् परब्रह्म है। वह सूक्ष्म भी सूक्ष्म, शून्य के समान ही है। परन्तु वह शून्य नहीं, परम सत्य है। भक्तजन उसी वस्तु को ‘भगवान् वासुदेव’ इस नाम से वर्णन करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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