द्वितीय स्कन्ध: अष्टम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद
बावली, कुआँ खुदवाना आदि स्मार्त्त, यज्ञ-यागादि वैदिक एवं काम्य कर्मों की तथा अर्थ-धर्म-काम के साधनों की विधि क्या है? प्रलय के समय जो जीव प्रकृति में लीन रहते हैं, उनकी उत्पत्ति कैसे होती है? पाखण्ड की उत्पत्ति कैसे होती है? आत्मा के बन्ध-मोक्ष का स्वरूप क्या है? और वह अपने स्वरूप में किस प्रकार स्थित होता है? भगवान् तो परम स्वतन्त्र हैं। वे अपनी माया से किस प्रकार क्रीड़ा करते हैं और उसे छोड़कर साक्षी के समान उदासीन कैसे हो जाते हैं? भगवन्! मैं यह सब आपसे पूछ रहा हूँ। मैं आपकी शरण में हूँ। महामुने! आप कृपा करके क्रमशः इनका तात्विक निरूपण कीजिये। इस विषय में आप स्वयम्भू ब्रह्मा के समान परम प्रमाण हैं। दूसरे लोग तो अपनी पूर्व परम्परा से सुनी-सुनायी बातों का ही अनुष्ठान करते हैं। ब्रह्मन्! आप मेरी भूख-प्यास की चिन्ता न करें। मेरे प्राण कुपित ब्राह्मण के शाप के अतिरिक्त और किसी कारण से निकल नहीं सकते; क्योंकि मैं आपके मुखारविन्द से निकलने वाली भगवान् की अमृतमयी लीला कथा का पान कर रहा हूँ। सूत जी कहते हैं- शौनकादि ऋषियों! जब राजा परीक्षित ने संतों की सभा में भगवान् की लीला-कथा सुनाने के लिये इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेव जी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने उन्हें वही वेदतुल्य श्रीमद्भागवत-महापुराण सुनाया, जो ब्राह्मकल्प के आरम्भ में स्वयं भगवान् को ब्रह्माजी को सुनाया था। पाण्डुवंशशिरोमणि परीक्षित ने उनसे जो-जो प्रश्न किये थे, वे उन सबका उत्तर क्रमशः देने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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