द्वादश स्कन्ध:षष्ठ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: षष्ठ अध्याय: श्लोक 75-80 का हिन्दी अनुवाद
जैमिनि मुनि के एक शिष्य का नाम था सुकर्मा। वह एक महान् पुरुष था। जैसे एक वृक्ष में बहुत-सी डालियाँ होती हैं, वैसे ही सुकर्मा ने सामवेद की एक हजार संहिताएँ बना दीं। सुकर्मा के शिष्य कोसल देश निवासी हिरण्यनाभ, पौष्यंजि और ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ आवन्त्य ने उन शाखाओं को ग्रहण किया। पौष्यंजि और आवन्त्य के पाँच सौ शिष्य थे। वे उत्तर दिशा के निवासी होने के कारण औदीच्य सामवेदी भी कहलाते थे। उन्हीं को प्राच्य सामवेदी भी कहते हैं। उन्होंने एक-एक संहिता का अध्ययन किया। पौष्यंजि के और भी शिष्य थे- लौगाक्षि, मांगलि, कुल्य, कुसीद और कुक्षि। इसमें से प्रत्येक ने सौ-सौ सहिंताओं का अध्ययन किया। हिरण्यनाभ का शिष्य था- कृत। उसने अपने शिष्यों को चौबीस संहिताएँ पढ़ायीं। शेष संहिताएँ परम संयमी आवन्त्य ने अपने शिष्यों को दीं। इस प्रकार सामदेव का विस्तार हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज