द्वादश स्कन्ध: दशम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद
सूत जी कहते हैं- शौनक जी! जब मार्कण्डेय मुनि ने संतों के परम आश्रय देवाधिदेव भगवान शंकर की इस प्रकार स्तुति की, तब वे उन पर अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और बड़े प्रसन्नचित से हँसते हुए कहने लगे। भगवान शंकर ने कहा- मार्कण्डेय! ब्रह्मा, विष्णु तथा मैं-हम तीनों ही वर दाताओं के स्वामी हैं, हम लोगों का दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता। हम लोगों से ही मरणशील मनुष्य भी अमृतत्त्व की प्राप्ति कर लेता है। इसलिये तुम्हारी जो इच्छा हो, वही वर मुझसे माँग लो। ब्राह्मण स्वभाव से ही परोपकारी, शान्तचित्त एवं अनासक्त होते हैं। वे किसी के साथ वैरभाव नहीं रखते और समदर्शी होने पर भी प्राणियों का कष्ट देखकर उसके निवारण के लिये पूरे हृदय से जुट जाते हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह होती है कि वे हमारे अनन्य प्रेमी एवं भक्त होते हैं। सारे लोक और लोकपाल ऐसे ब्राह्मणों की वन्दना, पूजा और उपासना किया करते हैं। केवल वे ही क्यों; मैं, भगवान ब्रह्मा तथा स्वयं साक्षात् ईश्वर विष्णु भी उनकी सेवा में संलग्न रहते हैं। ऐसे शान्त महापुरुष मुझमें, विष्णु भगवान में, ब्रह्मा में, अपने में और सब जीवों में अणुमात्र भी भेद नहीं देखते। सदा-सर्वदा, सर्वत्र और सर्वथा एकरस आत्मा का ही दर्शन करते हैं। इसलिये हम तुम्हारे-जैसे महात्माओं की स्तुति और सेवा करते हैं। मार्कण्डेय जी! केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं होते तथा केवल जड़ मूर्तियाँ ही देवता नहीं होतीं। सबसे बड़े तीर्थ और देवता तो तुम्हारे-जैसे संत हैं; क्योंकि वे तीर्थ और देवता बहुत दिनों में पवित्र करते हैं, परन्तु तुम लोग दर्शन मात्र से ही पवित्र कर देते हो। हम लोग तो ब्राह्मणों को ही नमस्कार करते हैं; क्योंकि वे चित्त की एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा हमारे वेदमय शरीर को धारण करते हैं। मार्कण्डेय जी! बड़े-बड़े महापापी और अन्त्यज भी तुम्हारे-जैसे महापुरुषों के चरित्र श्रवण और दर्शन से ही शुद्ध हो जाते हैं; फिर वे तुम लोगों के सम्भाषण और सहवास आदि से शुद्ध हो जायें, इसमें तो कहना ही क्या है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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