दशम स्कन्ध: नवतितम अध्याय (पूर्वार्ध)
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: नवतितम अध्याय श्लोक 21-28 का हिन्दी अनुवाद
प्रिय पर्वत! तुम तो बड़े उदार विचार के हो। तुमने ही पृथ्वी को भी धारण कर रखा है। न तुम हिलते-डोलते हो और न कुछ कहते-सुनते हो। जान पड़ता है कि किसी बड़ी बात की चिन्ता में मग्न हो रहे हो। ठीक है, ठीक है; हम समझ गयीं। तुम हमारी ही भाँति चाहते हो कि अपने स्तनों के समान बहुत-से शिखरों पर मैं भी भगवान श्यामसुन्दर के चरण-कमल धारण करूँ। समुद्रपत्नी नदियों! यह ग्रीष्म ऋतु है। तुम्हारे कुण्ड सूख गये हैं। अब तुम्हारे अंदर खिले हुए कमलों का सौन्दर्य नहीं दीखता। तुम बहुत दुबली-पतली हो गयी हो। जान पड़ता है, जैसे हम अपने प्रियतम श्यामसुन्दर की प्रेमभरी चितवन न पाकर अपना हृदय खो बैठी हैं और अत्यन्त दुबली-पतली हो गयी हैं, वैसे ही तुम भी मेघों के द्वारा अपने प्रियतम समुद्र का जल न पाकर ऐसी दीन-हीन हो गयी हो। हंस! आओ, आओ! भले आये, स्वागत है। आसन पर बैठो; लो दूध पियो। प्रिय हंस! श्यामसुन्दर की कोई बात तो सुनाओ। हम समझती हैं कि तुम उनके दूत हो। किसी के वश में न होने वाले श्यामसुन्दर सकुशल तो हैं न? अरे भाई! उनकी मित्रता तो बड़ी अस्थिर है, क्षणभंगुर है। एक बात तो बतलाओ, उन्होंने हमसे कहा था कि तुम्हीं हमारी परम प्रियतमा हो। क्या अब उन्हें यह बात याद है? जाओ, जाओ; हम तुम्हारी अनुनय-विनय नहीं सुनतीं। जब वे हमारी परवा नहीं करते, तो हम उनके पीछे क्यों मरें? क्षुद्र के दूत! हम उनके पास नहीं जातीं। क्या कहा? वे हमारी इच्छा पूर्ण करने के लिये ही आना चाहते हैं, अच्छा! तब उन्हें तो यहाँ बुला लाना, हमसे बातें कराना, परन्तु कहीं लक्ष्मी को साथ न ले आना। तब क्या वे लक्ष्मी को छोड़कर यहाँ नहीं आना चाहते? यह कैसी बात है? क्या स्त्रियों में लक्ष्मी ही एक ऐसी हैं, जिनका भगवान में अनन्य प्रेम है? क्या हमने से कोई एक भी वैसी नहीं है?
परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं। उन्होंने वेदोक्त धर्म का बार-बार आचरण करके लोगों को यह बात दिखला दी कि घर ही धर्म, अर्थ और काम-साधन का स्थान है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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