दशम स्कन्ध: एकपंचाशत्त्म अध्याय (पूर्वार्ध)
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 46-52 का हिन्दी अनुवाद
भगवन! मैं राजा था, राज्यलक्ष्मी के मद से मैं मतवाला हो रहा था। इस मरने वाले शरीर को ही तो मैं आत्मा-अपना स्वरूप समझ रहा था और राजकुमार, रानी, खजाना तथा पृथ्वी के लोभ-मोह में ही फँसा हुआ था। उन वस्तुओं की चिन्ता दिन-रात मेरे गले लगी रहती थी। इस प्रकार मेरे जीवन का यह अमूल्य समय बिलकुल निष्फल-व्यर्थ चला गया। जो शरीर प्रत्यक्ष ही घड़े और भीत के समान मिट्टी का है और दृश्य होने के कारण उन्हीं के समान अपने से अलग भी है, उसी को मैंने अपना स्वरूप मान लिया था और फिर अपने को मान बैठा था ‘नरदेव’! इस प्रकार मैंने मदान्ध होकर आपको तो कुछ समझा ही नहीं। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल की चतुरंगिणी सेना तथा सेनापतियों से घिरकर मैं पृथ्वी में इधर-उधर घूमता रहता। मुझे यह करना चाहिये और यह नहीं करना चाहिये, इस प्रकार विविध कर्तव्य और अकर्तव्यों की चिन्ता में पड़कर मनुष्य अपने एकमात्र कर्तव्य भगवत्प्राप्ति से विमुख होकर प्रमत्त हो जाता है, असावधान हो जाता है। संसार में बाँध रखने वाले विषयों के लिये उनकी लालसा दिन दूनी, रात चौगिनी बढ़ती ही जाती है। परन्तु जैसे भूख के कारण जीभ लपलपाता हुआ साँप असावधान चूहे को दबोच लेता है, वैसे ही कालरूप से सदा-सर्वदा सावधान रहने वाले आप एकाएक उस प्रसादग्रस्त प्राणी पर टूट पड़ते हैं और उसे ले बीतते हैं। जो पहले सोने के रथों पर अथवा बड़े-बड़े गजराजों पर चढ़कर चलता था और नरदेव कहलाता था, वही शरीर आपके अबाध काल का ग्रास बनकर बाहर फेंक देने पर पक्षियों की विष्ठा, धरती में गाड़ देने पर सड़कर कीड़ा और आग में जला देने पर राख का ढेर बन जाता है। प्रभो! जिसने सारी दिशाओं पर विजय प्राप्त कर ली है और जिससे लड़ने वाला संसार में कोई रह नहीं गया है, जो श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठता है और बड़े-बड़े नरपति, जो पहले उसके समान थे, अब जिसके चरणों में सिर झुकाते हैं, वही पुरुष जब विषय-सुख भोगने के लिए, जो घर-गृहस्थी की एक विशेष वस्तु है, स्त्रियों के पास जाता है, तब उनके हाथ का खिलौना, उनका पालतू पशु बन जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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