श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 34-43

दशम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 34-43 का हिन्दी अनुवाद

उन स्त्रियों में से एक को आने के समय ही उसके पति ने बलपूर्वक रोक लिया था। इस पर उस ब्राह्मण पत्नी ने भगवान के वैसे ही स्वरूप का ध्यान किया, जैसा कि बहुत दिनों से सुन रखा था। जब उसका ध्यान जम गया, तब मन-ही-मन भगवान का आलिंगन करके उसके कर्म के द्वारा बने हुए अपने शरीर को छोड़ दिया।[1] इधर भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणियों के लाये हुए उस चार प्रकार के अन्न से पहले ग्वालबालों को भोजन कराया और फिर उन्होंने स्वयं भी भोजन किया।

परीक्षित! इस प्रकार लीलामनुष्य भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य की-सी लीला की और अपने सौन्दर्य, माधुर्य, वाणी तथा कर्मों से गौएँ, ग्वालबालों और गोपियों को आनन्दित किया और स्वयं भी उनके अलौकिक प्रेमरस का आस्वादन करके आनन्दित हुए।

परीक्षित! इधर जब ब्राह्मणों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान हैं, तब उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। वे सोचने लगे कि जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की आज्ञा का उल्लंघन करके हमने बड़ा भारी अपराध किया है। वे तो मनुष्य की-सी लीला करते हुए भी परमेश्वर ही हैं।

जब उन्होंने देखा कि हमारी पत्नियों के हृदय तो भगवान के लिए अलौकिक प्रेम है और हम लोग उससे बिलकुल रीते हैं, तब वे पछता-पछताकर अपनी निन्दा करने लगे। वे कहते लगे - हाय! हम भगवान श्रीकृष्ण से विमुख हैं। बड़े ऊँचे कुल में हमारा जन्म हुआ, गायत्री ग्रहण करके हम द्विजाति हुए, वेदाध्ययन करके हमने बड़े-बड़े यज्ञ किये; परन्तु वह सब किस काम का? धिक्कार है! धिक्कार है! हमारी विद्या व्यर्थ गयी, हमारे व्रत बुरे सिद्ध हुए। हमारी इस बहुज्ञता को धिक्कार है!

ऊँचे वंश में जन्म लेना, कर्मकाण्ड में निपुण होना किसी काम न आया। इन्हें बार-बार धिक्कार है। निश्चय ही, भगवान की माया बड़े-बड़े योगियों को भी मोहित कर लेती है। तभी तो हम कहलाते हैं मनुष्यों के गुरु और ब्राह्मण, परन्तु अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थ के विषय में बिलकुल भूले हुए हैं। कितने आश्चर्य की बात है! देखो तो सही - यद्यपि ये स्त्रियाँ हैं, तथापि जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण में इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है! उसी से इन्होंने गृहस्थी की वह बहुत बड़ी फाँसी भी काट डाली, जो मृत्यु के साथ भी नहीं कटती।

इनके न तो द्विजाति के योग्य यज्ञोपवीत आदि संस्कार हुए हैं और न तो इन्होंने गुरुकुल में ही निवास किया है। न इन्होंने तपस्या की है और न तो आत्मा के सम्बन्ध में ही कुछ विवेक-विचार किया है। उनकी बात तो दूर रही, इनमें न तो पूरी पवित्रता है और न तो शुभकर्म ही। फिर भी समस्त योगेश्वरों के ईश्वर पुण्यकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में इनका दृढ़ प्रेम है। और हमने अपने संस्कार किये हैं, गुरुकुल में निवास किया है, तपस्या की है, आत्मानुसंधान किया है, पवित्रता का निर्वाह किया है तथा अच्छे-अच्छे कर्म किये हैं; फिर भी भगवान के चरणों में हमारा प्रेम नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शुद्धसत्त्वमय दिव्य शरीर से उसने भगवान की सन्निधि प्राप्त कर ली

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