श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 32 श्लोक 33-43

तृतीय स्कन्ध: द्वात्रिंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वात्रिंश अध्यायः श्लोक 33-43 का हिन्दी अनुवाद


जिस प्रकार रूप, रस एवं गन्ध आदि अनेक गुणों का आश्रयभूत एक ही पदार्थ भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा विभिन्न रूप से अनुभूत होता है, वैसे ही शास्त्र के विभिन्न मार्गों द्वारा एक ही भगवान् की अनेक प्रकार से अनुभूति होती है। नाना प्रकार के कर्म कलाप, यज्ञ, दान, तप, वेदाध्ययन, वेद विचार (मीमांसा), मन और इन्द्रियों के संयम, कर्मों के त्याग, विविध अंगों वाले योग, भक्तियोग, निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के धर्म, आत्मतत्त्व के ज्ञान और दृढ़ वैराग्य-इन सभी साधनों से सगुण-निर्गुणरूप स्वयंप्रकाश भगवान् को ही प्राप्त किया जाता है।

माताजी! सात्त्विक, राजस, तामस और निर्गुणभेद से चार प्रकार के भक्तियोग का और जो प्राणियों के जन्मादि विकारों का हेतु है तथा जिसकी गति जानी नहीं जाती, उस काल का स्वरूप मैं तुमसे कह ही चुका हूँ।

देवि! अविद्याजनित कर्म के कारण जीव की अनेकों गतियाँ होती हैं; उनमें जाने पर वह अपने स्वरूप को नहीं पहचान सकता। मैंने तुम्हें जो ज्ञानोपदेश दिया है-उसे दुष्ट, दुर्विनीत, घमंडी, दुराचारी और धर्मध्वजी (दम्भी) पुरुषों को नहीं सुनाना चाहिये।

जो विषयलोलुप हो, गृहासक्त हो, मेरा भक्त न हो अथवा मेरे भक्तों से द्वेष करने वाला हो, उसे भी इसका उपदेश कभी न करे। जो अत्यन्त श्रद्धालु, भक्त, विनयी, दूसरों के प्रति दोषदृष्टि न रखने वाला, सब प्राणियों से मित्रता रखने वाला, गुरु सेवा में तत्पर, बाह्य विषयों में अनासक्त, शान्तचित्त, मत्सरशून्य और पवित्रचित्त हो तथा मुझे परम प्रियतम मानने वाला हो, उसे इसका अवश्य उपदेश करे।

मा! जो पुरुष मुझमें चित्त लगाकर इसका श्रद्धापूर्वक एक बार भी श्रवण या कथन करेगा, वह मेरे परमपद को प्राप्त होगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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