श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 20 श्लोक 36-53

तृतीय स्कन्ध: विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 36-53 का हिन्दी अनुवाद


सुन्दरि! जब तुम उछलती हुई गेंद पर अपनी हथेली की थपकी मारती हो, तब तुम्हारा चरण-कमल एक जगह नहीं ठहरता; तुम्हारा कटिप्रदेश स्थूल स्तनों के भार से थक-सा जाता है और तुम्हारी निर्मल दृष्टि से भी थकावट झलकने लगती है। अहो! तुम्हारा केशपाश कैसा सुन्दर है’। इस प्रकार स्त्रीरूप से प्रकट हुई उस सायंकालीन सन्ध्या ने उन्हें अत्यन्त कामासक्त कर दिया और उन मूढ़ों ने उसे कोई रमणीरत्न समझकर ग्रहण कर लिया।

तदनन्तर ब्रह्मा जी ने गम्भीर भाव से हँसकर अपनी कान्तिमयी मूर्ति से, जो अपने सौन्दर्य का मानो आप ही आस्वादन करती थी, गन्धर्व और अप्सराओं को उत्पन्न किया। उन्होंने ज्योत्स्ना (चन्द्रिका) रूप अपने उस कान्तिमय प्रिय शरीर को त्याग दिया। उसी को विश्वावसु आदि गन्धर्वों ने प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया। इसके पश्चात् भगवान् ब्रह्मा ने अपनी तन्द्रा से भूत-पिशाच उत्पन्न किये। उन्हें दिगम्बर (वस्त्रहीन) और बाल बिखेरे देख उन्होंने आँखें मूँद लीं। ब्रह्मा जी के त्यागे हुए उस जँभाईरूप शरीर को भूत-पिशाचों ने ग्रहण किया। इसी को निद्रा भी कहते हैं, जिससे जीवों की इन्द्रियों में शिथिलता आती देखी जाती है। यदि कोई मनुष्य जूठे मुँह सो जाता है तो उस पर भूत-पिशाचादि आक्रमण करते हैं; उसी को उन्माद कहते हैं।

फिर भगवान् ब्रह्मा ने भावना की कि मैं तेजोमय हूँ और अपने अदृश्यरूप से साध्यगण एवं पितृगण को उत्पन्न किया। पितरों ने अपनी उत्पत्ति के स्थान उस अदृश्य शरीर को ग्रहण कर लिया। इसी को लक्ष्य में रखकर पण्डितजन श्राद्धादि के द्वारा पितर और साध्यगणों को क्रमशः कव्य (पिण्ड) और हव्य अर्पण करते हैं। अपनी तिरोधान शक्ति से ब्रह्मा जी ने सिद्ध और विद्याधरों की सृष्टि की और उन्हें अपना वह अन्तर्धान नामक अद्भुत शरीर दिया।

एक बार ब्रह्मा जी ने अपना प्रतिबिम्ब देखा। तब अपने को बहुत सुन्दर मानकर उस प्रतिबिम्ब से किन्नर और किम्पुरुष उत्पन्न किये। उन्होंने ब्रह्मा जी के त्याग देने पर उनका वह प्रतिबिम्ब-शरीर ग्रहण किया। इसीलिये ये सब उषःकाल में अपनी पत्नियों के साथ मिलकर ब्रह्मा जी के गुण-कर्मादी का गान किया करते हैं। एक बार ब्रह्मा जी सृष्टि की वृद्धि न होने के कारण बहुत चिन्तित होकर हाथ-पैर आदि अवयवों को फैलाकर लेट गये और फिर क्रोधवश उस भोगमय शरीर को त्याग दिया। उससे जो बाल झड़कर गिरे, वे अहि हुए तथा उसके हाथ-पैर सिकोड़कर चलने से क्रूर स्वभाव सर्प और नाग हुए, जिनका शरीर फणरूप से कंधे के पास बहुत फैला होता है।

एक बार ब्रह्मा जी ने अपने को कृतकृत्य-सा अनुभव किया। उस समय अन्त में उन्होंने अपने मन से मनुओं की सृष्टि की। ये सब प्रजा की वृद्धि करने वाले हैं। मनस्वी ब्रह्मा जी ने उनके लिये अपना पुरुषाकार शरीर त्याग दिया। मनुओं को देखकर उनसे पहले उत्पन्न हुए देवता-गन्धर्वादि ब्रह्मा जी की स्तुति करने लगे। वे बोले, ‘विश्वकर्ता ब्रह्मा जी! आपकी यह (मनुओं की) सृष्टि बड़ी ही सुन्दर है। इसमें अग्निहोत्र आदि सभी कर्म प्रतिष्ठित हैं। इसकी सहायता से हम भी अपना अन्न (हविर्भाग) ग्रहण कर सकेंगे’। फिर आदिऋषि ब्रह्मा जी ने इन्द्रियसंयमपूर्वक तप, विद्या, योग और समाधि से सम्पन्न हो अपनी प्रिय सन्तान ऋषिगण की रचना की और उनमें से प्रत्येक को अपने समाधि, योग, ऐश्वर्य, तप, विद्या और वैराग्यमय शरीर का अंश दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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