श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 29 श्लोक 66-77

चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 66-77 का हिन्दी अनुवाद


राजन्! तुम्हारा कल्याण हो। मन ही मनुष्य के पूर्वरूपों को तथा भावी शरीरादि को भी बता देता है और जिनका भावी जन्म होने वाला नहीं होता, उन तत्त्व-वेत्ताओं की विदेहमुक्ति का पता भी उनके मन से ही लग जाता है। कभी-कभी स्वप्न में देश, काल अथवा क्रिया सम्बन्धी ऐसी बातें भी देखी जाती हैं, जो पहले कभी देखी या सुनी नहीं गयीं। (जैसे पर्वत की चोटी पर समुद्र, दिन में तारे अथवा अपना सिर कटा दिखायी देना, इत्यादि) इनके दीखने में निद्रादोष को ही कारण मानना चाहिये। मन के सामने इन्द्रियों से अनुभव होने योग्य पदार्थ ही भोगरूप में बार-बार आते हैं और भोग समाप्त होने पर चले जाते हैं; ऐसा कोई पदार्थ नहीं आता, जिसका इन्द्रियों से अनुभव ही न हो सके। इसका कारण यही है कि सब जीव मन सहित हैं।

साधारणत: तो सब पदार्थों का क्रमशः ही भान होता है; किन्तु यदि किसी समय भगवच्चिन्तन में लगा हुआ मन विशुद्ध सत्त्व में स्थित हो जाये, तो उसमें भगवान् का संसर्ग होने से एक साथ समस्त विश्व का ही भान हो सकता है-जैसे राहु दृष्टि का विषय न होने पर भी प्रकाशात्मक चन्द्रमा के संसर्ग से दीखने लगता है। राजन्! जब तक गुणों का परिणाम एवं बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शब्दादि विषयों का संघात यह अनादि लिंग देह बना हुआ है, तब तक जीव के अंदर स्थूल देह के प्रति ‘मैं-मेरा’ इस भाव का अभाव नहीं हो सकता। सुषुप्ति, मूर्च्छा, अत्यन्त दुःख तथा मृत्यु और तीव्र ज्वरादि के समय भी इन्द्रियों की व्याकुलता के कारण ‘मैं’ और ‘मेरेपन’ की स्पष्ट प्रतीति नहीं होती; किन्तु उस समय भी उनका अभिमान तो बना ही रहता है। जिस प्रकार अमावास्या की रात्रि में चन्द्रमा रहते हुए भी दिखायी नहीं देता, उसी प्रकार युवावस्था में स्पष्ट प्रतीत होने वाला यह एकादश इन्द्रिय विशिष्ट लिंग शरीर गर्भावस्था और बाल्यकाल में रहते हुए भी इन्द्रियों का पूर्ण विकास न होने के कारण प्रतीत नहीं होता।

जिस प्रकार स्वप्न में किसी वस्तु का अस्तित्व न होने पर भी जागे बिना स्वप्नजनित अनर्थ की निवृत्ति नहीं होती-उसी प्रकार सांसारिक वस्तुएँ यद्यपि असत् हैं, तो भी अविद्यावश जीव उनका चिन्तन करता रहता है; इसलिये उसका जन्म-मरणरूप संसार से छुटकारा नहीं हो पाता। इस प्रकार पंचतन्मात्राओं से बना हुआ तथा सोलह तत्त्वों के रूप में विकसित यह त्रिगुणमय संघात ही लिंग शरीर है। यही चेतना शक्ति से युक्त होकर जीव कहा जाता है। इसी के द्वारा पुरुष भिन्न-भिन्न देहों को ग्रहण करता और त्यागता है तथा इसी से उसे हर्ष, शोक, भय, दुःख और सुख आदि का अनुभव होता है, जिस प्रकार जोंक, जब तक दूसरे तृण को नहीं पकड़ लेती, तब तक पहले को नहीं छोड़ती-उसी प्रकार जीव मरणकाल उपस्थित होने पर भी जब तक देहारम्भक कर्मों की समाप्ति होने पर दूसरा शरीर प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक पहले शरीर के अभिमान को नहीं छोड़ता।

राजन्! यह मनःप्रधान लिंग शरीर ही जीव के जन्मादि का कारण है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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