श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 60-68

चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 60-68 का हिन्दी अनुवाद


जिसमें यह सारा जगत् दिखायी देता है और जो स्वयं सम्पूर्ण जगत् में भास रहा है, वह आकाश के समान विस्तृत और परम प्रकाशमय ब्रह्मतत्त्व आप ही हैं।

भगवन्! आपकी माया अनेक प्रकार के रूप धारण करती है। इसी के द्वारा आप इस प्रकार जगत् की रचना, पालन और संहार करते हैं जैसे यह कोई सद्वस्तु हो। किन्तु इससे आपमें किसी प्रकार का विकार नहीं आता। माया के कारण दूसरे लोगों में ही भेदबुद्धि उत्पन्न होती है, आप परमात्मा पर वह अपना प्रभाव डालने में असमर्थ होती है। आपको तो हम परम स्वतन्त्र ही समझते हैं। आपका स्वरूप पंचभूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण के प्रेरकरूप से उपलक्षित होता है।

जो कर्मयोगी पुरुष सिद्धि प्राप्त करने के लिये तरह-तरह के कर्मों द्वारा आपके इस सगुण साकार स्वरूप का श्रद्धापूर्वक भलीभाँति पूजन करते हैं, वे ही वेद और शास्त्रों के सच्चे मर्मज्ञ हैं। प्रभो! आप ही अद्वितीय आदि पुरुष हैं। सृष्टि के पूर्व आपकी मायाशक्ति सोयी रहती है। फिर उसी के द्वारा सत्त्व, रज और तमरूप गुणों का भेद होता है और इसके बाद उन्हीं गुणों से महत्तत्त्व, अहकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, देवता, ऋषि और समस्त प्राणियों से युक्त इस जगत् की उत्पत्ति होती है। फिर आप अपनी ही मायाशक्ति से रचे हुए इन जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज भेद से चार प्रकार के शरीरों में अंशरूप से प्रवेश कर जाते हैं और जिस प्रकार मधुमक्खियाँ अपने ही उत्पन्न किये हुए मधु का आस्वादन करती हैं, उसी प्रकार वह आपका अंश उन शरीरों में रहकर इन्द्रियों के द्वारा तुच्छ विषयों को भोगता है। आपके उस अंश को ही पुरुष जीव कहते हैं।

प्रभो! आपका तत्त्वज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं अनुमान से होता है। प्रलयकाल उपस्थित होने पर कालस्वरूप आप ही अपने प्रचण्ड एवं असह्य वेग से पृथ्वी आदि भूतों को अन्य भूतों से विचलित कराकर समस्त लोकों का संहार कर देते हैं-जैसे वायु अपने असहनी एवं प्रचण्ड झोंकों से मेघों के द्वारा ही मेघों को तितर-बितर करके नष्ट कर डालती है।

भगवन्! यह मोहग्रस्त जीव प्रमादवश हर समय इसी चिन्ता में रहता है कि ‘अमुक कार्य करना है’। इसका लोभ बढ़ गया है और इसे विषयों की ही लालसा बनी रहती है। किन्तु आप सदा ही सजग रहते हैं; भूख से जीभ लपलपाता हुआ सर्प जैसे चूहे को चट कर जाता है, उसी प्रकार अपने कालस्वरूप से उसे सहसा लील जाते हैं। आपकी अवहेलना करने के कारण अपनी आयु को व्यर्थ मानने वाला ऐसा कौन विद्वान् होगा, जो आपके चरणकमलों को बिसारेगा? इसकी पूजा तो काल की आशंका से ही हमारे पिता ब्रह्मा जी और स्वयाम्भुव आदि चौदह मनुओं ने भी बिना कोई विचार किये केवल श्रद्धा से ही की थी। ब्रह्मन्! इस प्रकार सारा जगत् रुद्ररूप काल के भय से व्याकुल है। अतः परमात्मन्! इस तत्त्व को जानने वाले हम लोगों के तो इस समय आप ही सर्वथा भयशून्य आश्रय हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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