चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद
महाराज पृथु की पत्नी महारानी अर्चि भी उनके साथ वन को गयी थीं। वे बड़ी सुकुमारी थीं, पैरों से भूमि का स्पर्श करने योग्य भी नहीं थीं। फिर भी उन्होंने अपने स्वामी के व्रत और नियमादि का पालन करते हुए उनकी खूब सेवा की और मुनिवृत्ति के अनुसार कन्द-मूल आदि से निर्वाह किया। इससे यद्यपि वे बहुत दुर्बल हो गयी थीं, तो भी प्रियतम के करस्पर्श से सम्मानित होकर उसी में आनन्द मानने के कारण उन्हें किसी प्रकार कष्ट नहीं होता था। अब पृथ्वी के स्वामी और अपने प्रियतम महाराज पृथु कि देह को जीवन के चेतना आदि सभी धर्मों से रहित देख उस सती ने कुछ देर विलाप किया। फिर पर्वत के ऊपर चिता बनाकर उसे उस चिता पर रख दिया। इसके बाद उस समय के सारे कृत्य कर नदी के जल में स्नान किया। अपने परम पराक्रमी पति को जलांजलि दे आकाशस्थित देवताओं की वन्दना की तथा तीन बार चिता की परिक्रमा कर पतिदेव के चरणों का ध्यान करती हुई अग्नि में प्रवेश कर गयी। परमसाध्वी अर्चि को इस प्रकार अपने पति वीरवर पृथु का अनुगमन करते देख सहस्रों वरदायिनी देवियों ने अपने-अपने पतियों के साथ उनकी स्तुति की। वहाँ देवताओं के बाजे बजने लगे। उस समय उस मन्दराचल के शिखर पर वे देवांगनाएँ पुष्पों की वर्षा करती हुई आपस में इस प्रकार कहने लगीं। देवियों ने कहा- अहो! यह स्त्री धन्य है! इसने अपने पति राजराजेश्वर पृथु की मन-वाणी-शरीर से ठीक उसी प्रकार सेवा की है, जैसे श्रीलक्ष्मी जी यज्ञेश्वर भगवान् विष्णु की करती हैं। अवश्य ही अपने अचिन्त्य कर्म के प्रभाव से यह सती हमें भी लाँघकर अपने पति के साथ उच्चतर लोकों को जा रही है। इस लोक में कुछ ही दिनों का जीवन होने पर भी जो लोग भगवान् के परमपद की प्राप्ति कराने वाला आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, उनके लिये संसार में कौन पदार्थ है। अतः जो पुरुष बड़ी कठिनता से भूलोक में मोक्ष का साधनस्वरूप मनुष्य-शरीर पाकर भी विषयों में आसक्त रहता है, वह निश्चय ही आत्मघाती है; हाय! हाय! वह ठगा गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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