श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 17 श्लोक 18-36

चतुर्थ स्कन्ध: सप्तदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद


तब वह अत्यन्त भयभीत होकर दुःखित चित्त से पीछे की ओर लौटी और महाभाग पृथु जी से कहने लगी- ‘धर्म के तत्त्व को जानने वाले शरणागतवत्सल राजन्! आप तो सभी प्राणियों की रक्षा करने में तत्पर हैं, आप मेरी भी रक्षा कीजिये। मैं अत्यन्त दीन और निरपराध हूँ, आप मुझे क्यों मरना चाहते हैं? इसके सिवा आप तो धर्मज्ञ माने जाते हैं; फिर मुझ स्त्री का वध आप कैसे कर सकेंगे? स्त्रियाँ कोई अपराध करें, तो साधारण जीव भी उन पर हाथ नहीं उठाते; फिर आप जैसे करुणामय और दीनवत्सल तो ऐसा कर ही कैसे सकते हैं? मैं तो सुदृढ़ नौका के समान हूँ, सारा जगत् मेरे ही आधार पर स्थित हैं। मुझे तोड़कर आप अपने को और अपनी प्रजा को जल के ऊपर कैसे रखेंगे?

महाराज पृथु ने कहा- पृथ्वी! तू मेरी आज्ञा का उल्लंघन करने वाली है। तू यज्ञ में देवतारूप से भाग लेती है, किन्तु उसके बदले में हमें अन्न नहीं देती; इसलिये आज मैं तुझे मार डालूँगा। तू जो प्रतिदिन हरी-हरी घास खा जाती है और अपने थन का दूध नहीं देती- ऐसी दुष्टता करने पर तुझे दण्ड देना अनुचित नहीं कहा जा सकता। तू नासमझ है, तूने पूर्वकाल में ब्रह्मा जी के उत्पन्न किये हुए अन्नादि के बीजों को अपने में लीन कर लिया है, और अब मेरी भी परवा न करके उन्हें अपने गर्भ से निकालती नहीं। अब मैं अपने बाणों से तुझे छिन्न-भिन्न कर तेरे मेदे से इन क्षुधातुर और दीन प्रजाजनों का करुण-क्रन्दन शान्त करूँगा। जो दुष्ट अपना ही पोषण करने वाला तथा अन्य प्राणियों के प्रति निर्दय हो- वह पुरुष, स्त्री अथवा नपुंसक कोई भी हो- उसे मारना राजाओं के लिये न मारने के ही समान है। तू बड़ी गर्वीली और मदोन्मत्ता है; इस समय माया से ही यह गौ का रूप बनाये हुए है। मैं बाणों से तेरे टुकड़े-टुकड़े करके अपने योगबल से प्रजा को धारण करूँगा।

इस समय पृथु काल की भाँति क्रोधमयी मूर्ति धारण किये हुए थे। उनके ये शब्द सुनकर धरती काँपने लगी और उसने अत्यन्त विनीतभाव से हाथ जोड़कर कहा।

पृथ्वी ने कहा- आप साक्षात् परमपुरुष हैं तथा अपनी माया से अनेक प्रकार के शरीर धारणकर गुणमय जान पड़ते हैं; वास्तव में आत्मानुभव के द्वारा आप अधिभूत, अध्यात्म और अधिदैवसम्बन्धी अभिमान और उससे उत्पन्न हुए राग-द्वेषादि से सर्वथा रहित हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूँ। आप सम्पूर्ण जगत् के विधाता हैं; आपने ही यह त्रिगुणात्मक सृष्टि रची है और मुझे समस्त जीवों का आश्रय बनाया है। आप सर्वथा स्वतन्त्र हैं। प्रभो! अब आप ही अस्त्र-शस्त्र लेकर मुझे मारने को तैयार हो गये, तब मैं और किसकी शरण में जाऊँ?

कल्प के आरम्भ में आपने-अपने आश्रित रहने वाली अनिर्वचिया माया से ही इस चराचर जगत् की रचना की थी और उस माया के ही द्वारा आप इसका पालन करने के लिये तैयार हुए हैं। आप धर्मपरायण हैं; फिर भी मुझ गोरूपधारिणी को किस प्रकार मारना चाहते हैं? आप एक होकर भी मायावश अनेक रूप जान पड़ते हैं तथा आपने स्वयं ब्रह्मा को रचकर उनसे विश्व की रचना करायी है। आप साक्षात् सर्वेश्वर हैं, आपकी लीलाओं को अजितेन्द्रिय लोग कैसे जान सकते हैं? उनकी बुद्धि तो आपकी दुर्जय माया से विक्षिप्त हो रही है। आप ही पंचभूत, इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ देवता, बुद्धि और अहंकाररूप अपनी शक्तियों के द्वारा क्रमशः जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। भिन्न-भिन्न कार्यों के लिये समय-समय पर आपकी शक्तियों का आविर्भाव-तिरोभाव हुआ करता है। आप साक्षात् परमपुरुष और जगाद्विधाता हैं, आपको मेरा नमस्कार है।

अजन्मा प्रभो! आप ही अपने रचे हुए भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूप जगत् की स्थिति के लिये आदिवराह रूप होकर मुझे रसातल से जल के बाहर लाये थे। इस प्रकार एक बार तो मेरा उद्धार करके आपने धराधर नाम पाया था; आज वही आप वीरमूर्ति से जल के ऊपर नौका के समान स्थित मेरे ही आश्रय रहने वाली प्रजा की रक्षा करने के अभिप्राय से पैने-पैने बाण चढ़ाकर दूध न देने के अपराध में मुझे मारना चाहते हैं। इस त्रिगुणात्मक सृष्टि की रचना करने वाली आपकी माया से मेरे-जैसे साधारण जीवों के चित्त मोहग्रस्त हो रहे हैं। मुझ-जैसे लोग तो आपके भक्तों की लीलाओं का भी आशय नहीं समझ सकते, फिर आपकी किसी क्रिया का उद्देश्य न समझें तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। अतः जो इन्द्रिय-संयमादि के द्वारा वीरोचित यज्ञ का विस्तार करते हैं, ऐसे आपके भक्तों को भी नमस्कार है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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