श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 15-26

चतुर्थ स्कन्ध: पंचदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पंचदश अध्यायः श्लोक 15-26 का हिन्दी अनुवाद


वायु ने दो चँवर, धर्म ने कीर्तिमयी माला, इन्द्र ने मनोहर मुकुट, यम ने दमन करने वाला दण्ड, ब्रह्मा ने वेदमय कवच, सरस्वती ने सुन्दर हार, विष्णु भगवान् ने सुदर्शन चक्र, विष्णुप्रिया लक्ष्मी जी ने अविचल सम्पत्ति, रुद्र ने दस चन्द्राकर चिह्नों से युक्त कोषवाली तलवार, अम्बिका जी ने सौ चन्द्राकर चिह्नों वाली ढाल, चन्द्रमा ने अमृतमय अश्व, त्वष्टा (विश्वकर्मा) ने सुन्दर रथ, अग्नि ने बकरे और गौ के सींगों का बना हुआ सुदृढ़ धनुष, सूर्य ने तेजोमय बाण, पृथ्वी ने चरणस्पर्श-मात्र से अभीष्ट स्थान पर पहुँचा देने वाली योगमयी पादुकाएँ, आकाश के अभिमानी द्यौ देवता ने नित्य नूतन पुष्पों की माला, आकाशविहारी सिद्ध-गन्धर्वादी ने नाचने-गाने, बजाने और अन्तर्धान हो जाने की शक्तियाँ, ऋषियों ने अमोघ आशीर्वाद, समुद्र ने अपने से उत्पन्न हुआ शंख तथा सातों समुद्र, पर्वत और नदियों ने उनके रथ के लिये बरोक-टोक मार्ग उपहार में दिये। इसके पश्चात् सूत, मागध और वन्दीजन उनकी स्तुति करने के लिये उपस्थित हुए। तब उन स्तुति करने वालों का अभिप्राय समझकर वेनपुत्र परमप्रतापी महाराज पृथु ने हँसते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी में कहा।

पृथु ने कहा- सौम्य सूत, मागध और वन्दीजन! अभी तो लोक में मेरा कोई भी गुण प्रकट नहीं हुआ। फिर तुम किन गुणों को लेकर मेरी स्तुति करोगे? मेरे विषय में तुम्हारी वाणी व्यर्थ नहीं होनी चाहिये। इसलिये मुझसे भिन्न किसी और की स्तुति करो।

मृदुभाषियों! कालान्तर में जब मेरे अप्रकट गुण प्रकट हो जायें, तब भरपेट अपनी मधुर वाणी से मेरी स्तुति कर लेना। देखो, शिष्टपुरुष पवित्रकीर्ति श्रीहरि के गुणानुवाद के रहते हुए तुच्छ मनुष्यों की स्तुति नहीं किया करते। महान् गुणों को धारण करने में समर्थ होने पर भी ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष है, जो उसके न रहने पर भी केवल सम्भावनामात्र से स्तुति करने वालों द्वारा अपनी स्तुति करायेगा? यदि यह विद्याभ्यास करता तो इसमें अमुक-अमुक गुण हो जाते-इस प्रकार की स्तुति से तो मनुष्य की वंचना की जाती है। वह मन्दमति यह नहीं समझता कि इस प्रकार तो लोग उसका उपहास ही कर रहे हैं। जिस प्रकार लज्जाशील उदारपुरुष अपने किसी निन्दित पराक्रम की चर्चा होनी बुरी समझते हैं; उसी प्रकार लोकविख्यात समर्थ पुरुष अपनी स्तुति को भी निन्दित मानते हैं।

सूतगण! अभी हम अपने श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा लोक में अप्रसिद्ध ही हैं; हमने अब तक कोई भी ऐसा काम नहीं किया है, जिसकी प्रशंसा की जा सके। तब तुम लोगों से बच्चों के समान अपनी कीर्ति का किस प्रकार गान करावें?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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