चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 35-46 का हिन्दी अनुवाद
एक दिन वे मुनिगण सरस्वती के पवित्र जल में स्नान कर अग्निहोत्र से निवृत्त हो नदी के तीर पर बैठे हुए हरिचर्चा कर रहे थे। उन दिनों लोकों में आतंक फैलाने वाले बहुत-से उपद्रव होते देखकर वे आपस में कहने लगे, ‘आजकल पृथ्वी का कोई रक्षक नहीं है; इसलिये चोर-डाकुओं के कारण उसका कुछ अमंगल तो नहीं होने वाला है? ऋषि लोग ऐसा विचार कर ही रहे थे कि उन्होंने सब दिशाओं में धावा करने वाले चोरों और डाकुओं के कारण उठी हुई बड़ी भारी धूल देखी। देखते ही वे समझ गये कि राजा वेन के मर जाने के कारण देश में अराजकता फैल गयी है, राज्य शक्तिहीन हो गया है और चोर-डाकू बढ़ गये हैं; यह सारा उपद्रव लोगों का धन लूटने वाले तथा एक-दूसरे के खून के प्यासे लुटेरों का ही है। अपने तेज से अथवा तपोबल से लोगों को ऐसी कुप्रवृत्ति से रोकने में समर्थ होने पर भी ऐसा करने में हिंसादि दोष देखकर उन्होंने इसका कोई निवारण नहीं किया। फिर सोचा कि ‘ब्राह्मण यदि समदर्शी और शान्तस्वभाव भी हो तो भी दोनों की उपेक्षा करने से उसका तप उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जैसे फूटे हुए घड़े में से जल बह जाता है। फिर राजर्षि अंग का वंश भी नष्ट नहीं होना चाहिये, क्योंकि इसमें अनेक अमोघ-शक्ति और भगवत्परायण राजा हो चुके हैं’। ऐसा निश्चय कर उन्होंने मृत राजा की जाँघ को बड़े जोर से मथा तो उसमें से एक बौना पुरुष उत्पन्न हुआ। वह कौए के समान काला था; उसके सभी अंग और खासकर भुजाएँ बहुत छोटी थीं, जबड़े बहुत बड़े, टाँगे छोटी, नाक चपटी, नेत्र लाल और केश ताँबे के-से रंग के थे। उसने बड़ी दीनता और नम्रताभाव से पूछा कि ‘मैं क्या करूँ?’ तो ऋषियों ने कहा- ‘निषीद (बैठ जा)।’ इसी से वह ‘निषाद’ कहलाया। उसने जन्म लेते ही राजा वेन के भयंकर पापों को अपने ऊपर ले लिया, इसीलिये उसके वंशधर नैषाद भी हिंसा, लूट-पाट आदि पापकर्मों में रत रहते हैं; अतः वे गाँव और नगर में न टिककर वन और पर्वतों में ही निवास करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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