श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 39-49

चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 39-49 का हिन्दी अनुवाद


वह बालक बाल्यावस्था से ही अधर्म के वंश में उत्पन्न हुए अपने नाना मृत्यु का अनुगामी था (सुनीथा मृत्यु की ही पुत्री थी); इसलिये वह भी अधार्मिक ही हुआ। वह दुष्ट वेन धनुष-बाण चढ़ाकर वन में जाता और व्याध के समान बेचारे भोले-भाले हरिणों की हत्या करता। उसे देखते ही पुरवासी लोग ‘वेन आया! वेन आया!’ कहकर पुकार उठते। वह ऐसा क्रूर और निर्दयी था कि मैदान में खेलते हुए अपनी बराबरी के बालकों को पशुओं की भाँति बलात् मार डालता।

वेन की ऐसी दुष्ट प्रकृति देखकर महाराज अंग ने उसे तरह-तरह से सुधारने की चेष्टा की; परन्तु वे उसे सुमार्ग पर लाने में समर्थ न हुए। इससे उन्हें बड़ा ही दुःख हुआ। (वे मन-ही-मन कहने लगे-) ‘जिन गृहस्थों के पुत्र नहीं हैं, उन्होंने अवश्य ही पूर्वजन्म में श्रीहरि की आराधना की होगी; इसी से उन्हें कुपूत की करतूतों से होने वाले असह्य क्लेश नहीं सहने पड़ते। जिसकी करनी से माता-पिता का सारा सुयश मिट्टी में मिल जाये, उन्हें अधर्म का भागी होना पड़े, सबसे विरोध हो जाये, कभी न छूटने वाली चिन्ता मोल लेनी पड़े और घर भी दुःखदायी हो जाये-ऐसी नाममात्र की सन्तान के लिये कौन समझदार पुरुष ललचावेगा? वह तो आत्मा के लिये एक प्रकार का मोहमय बन्धन ही है। मैं तो सपूत की अपेक्षा कुपूत को ही अच्छा समझता हूँ; क्योंकि सपूत को छोड़ने में बड़ा क्लेश होता है। कुपूत घर को नरक बना देता है, इसलिये उससे सहज ही छुटकारा हो जाता है’।

इस प्रकार सोचते-सोचते महाराज अंग को रात में नींद नहीं आयी। उनका चित्त गृहस्थी से विरक्त हो गया। वे आधी रात के समय बिछौने से उठे। इस समय वेन की माता नींद में बेसुध पड़ी थी। राजा ने सबका मोह छोड़ दिया और उसी समय किसी को भी मालूम न हो, इस प्रकार चुपचाप उस महान् ऐश्वर्य से भरे राजमहल से निकलकर वन को चल दिये। महाराज विरक्त होकर घर से निकल गये हैं, यह जानकर सभी प्रजाजन, पुरोहित, मन्त्री और सुहृद्गण आदि अत्यन्त शोकाकुल होकर पृथ्वी पर उनकी खोज करने लगे। ठीक वैसे ही, जैसे योग का यथार्थ रहस्य न जानने वाले पुरुष अपने हृदय में छिपे हुए भगवान् को बाहर खोजते हैं।

जब उन्हें अपने स्वामी का कहीं पता न लगा, तब वे निराश होकर नगर में लौट आये और वहाँ जो मुनिजन एकत्रित हुए थे, उन्हें यथावत् प्रणाम करके उन्होंने आँखों में आँसू भरकर महाराज के न मिलने का वृत्तान्त सुनाया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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