श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 45-52

एकादश स्कन्ध: सप्तम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तम अध्याय श्लोक 45-52 का हिन्दी अनुवाद


राजन्! मैंने अग्नि से यह शिक्षा ली है कि जैसे वह तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है, जैसे उसे कोई अपने तेज से दबा नहीं सकता, जैसे उसके पास संग्रह-परिग्रह के लिये कोई पात्र नहीं-सब कुछ अपने पेट में रख लेती है, और जैसे सब कुछ खा-पी लेने पर भी विभिन्न वस्तुओं के दोषों से वह लिप्त नहीं होती वैसे ही साधक भी परम तेजस्वी, तपस्या से देदीप्यमान, इन्द्रियों से अपराभूत, भोजन मात्र का संग्रही और यथायोग्य सभी विषयों का उपभोग करता हुआ भी अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखे, किसी का दोष अपने में न आने दे।

जैसे अग्नि कहीं (लकड़ी आदि में) अप्रकट रहती है और कहीं प्रकट, वैसे ही साधक भी कहीं गुप्त रहे और कहीं प्रकट हो जाये। वह कहीं-कहीं ऐसे रूप में भी प्रकट हो जाता है, जिससे कल्याणकामी पुरुष उसकी उपासना कर सकें। वह अग्नि के समान ही भिक्षारूप हवन करने वालों के अतीत और भावी अशुभ को भस्म कर देता है तथा सर्वत्र अन्न ग्रहण करता है। साधक पुरुष को इसका विचार करना चाहिये कि जैसे अग्नि लम्बी-चौड़ी, टेढ़ी-सीधी लकड़ियों में रहकर उनके समान ही सीधी-टेढ़ी या लम्बी-चौड़ी दिखाई पड़ती है-वास्तव में वह वैसी है नहीं; वैसे ही सर्वव्यापक आत्मा भी अपनी माया से रचे हुए कार्य-कारणरूप जगत् में व्याप्त होने के कारण उन-उन वस्तुओं के नाम-रूप से कोई सम्बन्ध न होने पर भी उनके रूप में प्रतीत होने लगता है।

मैंने चन्द्रमा से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यद्यपि जिसकी गति नहीं जानी जा सकती, उस काल के प्रभाव से चन्द्रमा की कलाएँ घटती-बढ़ती रहती हैं, तथापि चन्द्रमा ही है, वह न घटता है और न बढ़ता ही है; वैसे ही जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जितनी भी अवस्थाएँ हैं, सब शरीर की हैं, आत्मा से उनका कोई भी सम्बन्ध नहीं है। जैसे आग की लपट अथवा दीपक की लौ क्षण-क्षण में उत्पन्न और नष्ट होती रहती है-उनका यह क्रम निरन्तर चलता रहता है, परन्तु दीख नहीं पड़ता-वैसे ही जलप्रवाह के समान वेगवान् काल के द्वारा क्षण-क्षण में प्राणियों के शरीर की उत्पत्ति और विनाश होता रहता है, परन्तु अज्ञानवश वह दिखायी नहीं पड़ता।

राजन्! मैंने सूर्य से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वे अपनी किरणों से पृथ्वी का जल खींचते और समय पर उसे बरसा देते हैं, वैसे ही योगी पुरुष इन्द्रियों के द्वारा समय पर विषयों का ग्रहण करता है और समय आने पर उनका त्याग-उनका दान भी कर देता है। किसी भी समय उसे इन्द्रिय के किसी भी विषय में आसक्ति नहीं होती। स्थूलबुद्धि पुरुषों को जल के विभिन्न पात्रों में प्रतिबिम्बित हुआ सूर्य उन्हीं में प्रविष्ट-सा होकर भिन्न-भिन्न दिखायी पड़ता है। परन्तु इससे स्वरूपतः सूर्य अनेक नहीं हो जाता; वैसे ही चल-अचल उपाधियों के भेद से ऐसा जान पड़ता है कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा अलग-अलग है। परन्तु जिनको ऐसा मालूम होता है, उनकी बुद्धि मोटी है। असल बात तो यह है कि आत्मा सूर्य के समान एक ही है। स्वरूपतः उनमें कोई भेद नहीं है।

राजन्! कहीं किसी के साथ अत्यन्त स्नेह अथवा आसक्ति न करनी चाहिये, अन्यथा उसकी बुद्धि अपना स्वातन्त्र्य खोकर दीन हो जायेगी और उसे कबूतर की तरह अत्यन्त क्लेश उठाना पड़ेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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