श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 38-44

एकादश स्कन्ध: द्वितीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वितीय अध्याय श्लोक 38-44 का हिन्दी अनुवाद


राजन्! सच पूछो तो भगवान के अतिरिक्त, आत्मा के अतिरिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं। परन्तु न होने पर भी इसकी प्रतीति इसका चिन्तन करने वाले को उसके चिन्तन के कारण, उधर मन लगने के कारण ही होती है-जैसे स्वप्न के समय स्वप्नदृष्टा की कल्पना से अथवा जाग्रत् अवस्था में नाना प्रकार के मनोरथों से एक विलक्षण ही सृष्टि दीखने लगती है। इसलिये विचारवान् पुरुष को चाहिये कि सांसारिक कर्मों के सम्बन्ध में संकल्प-विकल्प करने वाले मन को रोक दे-कैद कर ले। बस, ऐसा करते ही उसे अभय पद की, परमात्मा की प्राप्ति हो जायेगी।

संसार में भगवान के जन्म की और लीला की बहुत-सी मंगलमयी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। उनको सुनते रहना चाहिये। उन गुणों और लीलाओं का स्मरण दिलाने वाले भगवान के बहुत-से नाम भी प्रसिद्ध हैं। लाज-संकोच छोड़कर उनका गान करते रहना चाहिये। इस प्रकार किसी भी व्यक्ति, वस्तु और स्थान में आसक्ति न करके विचरण करते रहना चाहिये। जो इस प्रकार विशुद्ध व्रत-नियम ले लेता है, उसके हृदय में अपने परम प्रियतम प्रभु के नाम-कीर्तन से अनुराग का, प्रेम का अंकुर उग जाता है। उसका चित्त द्रवित हो जाता है। अब वह साधारण लोगों की धारणाओं से परे हो जाता है। दम्भ से नहीं, स्वभाव से ही मतवाला-सा होकर कभी खिलखिलाकर हँसने लगता है तो कभी फूट-फूटकर रोने लगता है। कभी ऊँचे स्वर से भगवान को पुकारने ने लगता है, तो कभी मधुर स्वर से उनके गुणों का गान करने लगता है। कभी-कभी जब वह अपने प्रियतम को अपने नेत्रों के सामने अनुभव करता है, तब उन्हें रिझाने के लिये नृत्य भी करने लगता है।

राजन्! यह आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, गृह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-वनस्पति, नदी, समुद्र-सब-के-सब भगवान के शरीर हैं। सभी रूपों में स्वयं भगवान प्रकट हैं। ऐसा समझकर वह जो कोई भी उसके सामने आ जाता है-चाहे वह प्राणी हो या अप्राणी-उसे अनन्यभाव से-भगवद्भाव से प्रणाम करता है। जैसे भोजन करने वाले को प्रत्येक ग्रास के साथ ही तुष्टि (तृप्ति अथवा सुख), पुष्टि (जीवन शक्ति का संचार) और क्षुधा-निवृत्ति-ये तीनों एक साथ होते जाते हैं; वैसे ही जो मनुष्य भगवान की शरण लेकर उनका भजन करने लगता है, उसे भजन के प्रत्येक क्षण में भगवान के प्रति प्रेम, अपने प्रेमास्पद प्रभु के स्वरूप का अनुभव और उनके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं में वैराग्य-इन तीनों की एक साथ ही प्राप्ति होती जाती है। राजन्! इस प्रकार जो प्रतिक्षण एक-एक वृत्ति के द्वारा भगवान के चरणकमलों का ही भजन करता है, उसे भगवान के प्रति प्रेममयी भक्ति, संसार के प्रति वैराग्य और अपने प्रियतम भगवान के स्वरूप की स्फूर्ति-ये सब अवश्य ही प्राप्त होते हैं; वह भागवत हो जाता है और जब ये सब प्राप्त हो जाते हैं, तब वह स्वयं परमशान्ति का अनुभव करने लगता है।

राजा निमि ने पूछा- योगीश्वर! अब आप कृपा करके भगवद्भक्त का लक्षण वर्णन कीजिये। उसके क्या धर्म हैं? और कैसा स्वभाव होता है? वह मनुष्यों के साथ व्यवहार करते समय कैसा आचरण करता है? क्या बोलता है? और किन लक्षणों के कारण भगवान का प्यारा होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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