एकादश स्कन्ध: अष्टाविंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टाविंश अध्याय श्लोक 34-44 का हिन्दी अनुवाद
उद्धव जी! अद्वितीय आत्मतत्त्व में अर्थहीन नामों के द्वारा विवधता मान लेना ही मन का भ्रम है, अज्ञान है। सचमुच यह बहुत बड़ा मोह है, क्योंकि अपने आत्मा के अतिरिक्त उस भ्रम का भी और कोई अधिष्ठान नहीं है। अधिष्ठान-सत्ता में अध्यस्त की सत्ता है ही नहीं। इसलिये सब कुछ आत्मा ही है। बहुत-से पण्डिताभिमानी लोग ऐसा कहते हैं कि यह पाञ्चभौतिक द्वैत विभिन्न नामों और रूपों के रूप में इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किया जाता है, इसलिये सत्य है। परन्तु यह तो अर्थहीन वाणी का आडम्बर मात्र है; क्योंकि तत्त्वतः तो इन्द्रियों की पृथक् सत्ता ही सिद्ध नहीं होती, फिर वे किसी को प्रमाणित कैसे करेंगी? उद्धव जी! यदि योग साधना पूर्ण होने के पहले ही किसी साधक का शरीर रोगादि उपद्रवों से पीड़ित हो, तो उसे इन उपायों का आश्रय लेना चाहिये। गरमी-ठंडक आदि को चन्द्रमा-सूर्य आदि की धारणा के द्वारा, वात आदि रोगों को वायु धारणा युक्त आसनों के द्वारा और ग्रह-सर्पादिकृत विघ्नों को तपस्या, मन्त्र एवं ओषधि के द्वारा नष्ट कर डालना चाहिये। काम-क्रोध आदि विघ्नों को मेरे चिन्तन और नाम-संकीर्तन आदि के द्वारा नष्ट करना चाहिये। तथा पतन की ओर ले जाने वाले दम्भ-मद आदि विघ्नों को धीरे-धीरे महापुरुषों की सेवा के द्वारा दूर कर देना चाहिये। कोई-कोई मनस्वी योगी विवध उपायों के द्वारा इस शरीर को सुदृढ़ और युवावस्था में स्थिर करके फिर अणिमा आदि सिद्धियों के लिये योग साधन करते हैं, परन्तु बुद्धिमान पुरुष ऐसे विचार का समर्थन नहीं करते, क्योंकि यह तो एक व्यर्थ प्रयास है। वृक्ष में लगे हुए फल के समान इस शरीर का नाश तो अवश्यम्भावी है। यदि कदाचित् बहुत दिनों तक निरन्तर और आदर पूर्वक योग साधना करते रहने पर शरीर सुदृढ़ भी हो जाये, तब भी बुद्धिमान परुष को अपनी साधना छोड़कर उतने में ही सन्तोष नहीं कर लेना चाहिये। उसे तो सर्वदा मेरी प्राप्ति के लिये ही संलग्न रहना चाहिये। जो साधक मेरा आश्रय लेकर मेरे द्वारा कही हुई योग साधना में संलग्न रहता है, उसे कि भी विघ्न-बाधा डिगा नहीं सकती। उसकी सारी कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं और वह आत्मानन्द की अनुभूति में मग्न हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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