एकादश स्कन्ध: सप्तविंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तविंश अध्याय श्लोक 40-47 का हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार अग्नि में अन्तर्यामी रूप से स्थित भगवान की पूजा करके उन्हें नमस्कार करे और नन्द-सुनन्द आदि पार्षदों को आठों दिशाओं में हवन कर्मांग बलि दे। तदनन्तर प्रतिमा के सम्मुख बैठकर परब्रह्म स्वरूप भगवान नारायण का स्मरण करे और भगवत्स्वरूप मूलमन्त्र ‘ॐ नमो नारायणाय’ का जप करे। इसके बाद भगवान को आचमन कराये और उनका प्रसाद विष्वक्सेन को निवेदन करे। इसके पश्चात् अपने इष्टदेव की सेवा में सुगन्धित ताम्बूल आदि मुखवास उपस्थित करे तथा पुष्पान्जलि समर्पित करे। मेरी लीलाओं को गावे, उनका वर्णन करे और मेरी ही लीलाओं का अभिनय करे। यह सब करते समय प्रेमोन्मत्त होकर नाचने लगे। मेरी लीला-कथाएँ स्वयं सुने और दूसरों को सुनावे। कुछ समय तक संसार और उसके रगड़ों-झग ड़ों को भूलकर मुझमें ही तन्मय हो जाये। प्राचीन ऋषियों के द्वारा अथवा प्राकृत भक्तों के द्वारा बनाये हुए छोटे-बड़े स्तव और स्त्रोतों से मेरी स्तुति करके प्रार्थना करे- ‘भगवन्! आप मुझ पर प्रसन्न हों। मुझे अपने कृपा प्रसाद से सराबोर कर दें।’ तदनन्तर दण्डवत् प्रणाम करे। अपना सिर मेरे चरणों पर रख दे और अपने दोनों हाथों से-दायें से दाहिना और बायें से बायाँ चरण पकड़कर कहे- ‘भगवन्! इस संसार-सागर में मैं डूब रहा हूँ। मृत्युरूप मगर मेरा पीछा कर रहा है। मैं डरकर आपकी शरण में आया हूँ। प्रभो! आप मेरी रक्षा कीजिये’। इस प्रकार स्तुति करके मुझे समर्पित की हुई माला आदर के साथ अपने सिर पर रखे और उसे मेरा दिया हुआ प्रसाद समझे। यदि विसर्जन करना हो तो ऐसी भावना करनी चाहिये कि प्रतिमा में से एक दिव्य ज्योति निकली है और वह मेरी हृदयस्थ ज्योति में लीन हो गयी है। बस, यही विसर्जन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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