श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 25-36

एकादश स्कन्ध: अष्टदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टदश अध्याय श्लोक 25-36 का हिन्दी अनुवाद


भिक्षा भी अधिकतर वानप्रस्थियों के आश्रम से ही ग्रहण करे; क्योंकि कटे हुए खेतों के दाने से बनी हुई भिक्षा शीघ्र ही चित्त को शुद्ध कर देती है और उससे बचा-खुचा मोह दूर होकर सिद्धि प्राप्त हो जाती है। विचारवान् संन्यासी दृश्यमान जगत् को सत्य वस्तु कभी न समझे; क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष ही नाशवान् है। इस जगत् में कहीं भी अपने चित्त को लगाये नहीं। इस लोक और परलोक में जो कुछ करने-पाने की इच्छा हो, उससे विरक्त हो जाये। संन्यासी विचार करे कि आत्मा में जो मन, वाणी और प्राणों का संघातरूप यह जगत् है, वह सारा-का-सारा माया ही है। इस विचार के द्वारा इसका बाध करके अपने स्वरूप में स्थित जो जाये फिर कभी उसका स्मरण भी न करे। ज्ञाननिष्ठ, विरक्त, मुमुक्षु और मोक्ष की भी अपेक्षा न रखने वाला मेरा भक्त आश्रमों की मर्यादा में बद्ध नहीं है। वह चाहे तो आश्रमों और उनके चिह्नों को छोड़-छाड़कर, वेद-शास्त्र के विधि-निषेधों से परे होकर स्वच्छन्द विचरे।

वह बुद्धिमान होकर भी बालकों के समान खेले। निपुण होकर भी जड़वत् रहे, विद्वान होकर भी पागल की तरह बातचीत करे और समस्त वेद-विधियों का जानकार होकर भी पशुवृत्ति से (अनियत आचारवान्) रहे। उसे चाहिये कि वेदों के कर्मकाण्ड-भाग की व्याख्या में न लगे, पाखण्ड न करे, तर्क-वितर्क से बचे और जहाँ कोरा वाद-विवाद हो रहा हो, वहाँ कोई पक्ष न ले। वह इतना धैर्यवान् हो कि उसके मन में किसी भी प्राणी से उद्वेग न हो और वह स्वयं भी किसी प्राणी को उद्विग्न न करे। उसकी कोई निन्दा करे, तो प्रसन्नता से सह ले; किसी का अपमान न करे। प्रिय उद्धव! संन्यासी इस शरीर के लिये किसी से भी वैर न करे। ऐसा वैर तो पशु करते हैं। जैसे एक ही चन्द्रमा जल से भरे हुए विभिन्न पात्रों में अलग-अलग दिखायी देता है, वैसे ही एक ही परमात्मा समस्त प्राणियों में और अपने में भी स्थित है। सबकी आत्मा तो एक है ही, पंचभूतों से बने हुए शरीर भी सबके एक ही है, क्योंकि सब पांच भौतिक ही तो हैं। (ऐसी अवस्था में किसी से भी वैर-विरोध करना अपना ही वैर-विरोध हैं)।

प्रिय उद्धव! संन्यासी को किसी दिन यदि समय पर भोजन न मिले, तो उसे दुःखी नहीं होना चाहिये और यदि बराबर मिलता रहे, तो हर्षित न होना चाहिये। उसे चाहिये कि वह धैर्य रखे। मन में हर्ष और विषाद दोनों प्रकार के विकार न आने दे; क्योंकि भोजन मिलना और न मिलना दोनों ही प्रारब्ध के अधीन हैं। भिक्षा अवश्य माँगनी चाहिये, ऐसा करना उचित ही है; क्योंकि भिक्षा से ही प्राणों की रक्षा होती है। प्राण रहने से ही तत्त्व का विचार होता है और तत्त्वविचार से तत्त्वज्ञान होकर मुक्ति मिलती है। संन्यासी को प्रारब्ध के अनुसार अच्छी या बुरी-जैसी भी भिक्षा मिल जाये, उसी से पेट भर ले। वस्त्र और बिछौने भी जैसे मिल जायें, उन्हीं से काम चला ले। उनमें अच्छेपन या बुरेपन की कल्पना न करे। जैसे मैं परमेश्वर होने पर भी अपनी लीला से ही शौच आदि शास्त्रोक्त नियमों का पालन करता हूँ, वैसे ही ज्ञाननिष्ठ पुरुष भी शौच, आचमन, स्नान और दूसरे नियमों का लीला से ही आचरण करे। वह शास्त्रविधि के अधीन होकर-विधि-किंकर होकर न करे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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