श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 34-37

एकादश स्कन्ध: दशम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: दशम अध्याय श्लोक 34-37 का हिन्दी अनुवाद


प्यारे उद्धव! जब माया के गुणों में क्षोभ होता है, तब मुझ आत्मा को ही काल, जीव, वेद, लोक, स्वभाव और धर्म आदि अनेक नामों से निरूपण करने लगते हैं। (ये सब मायामय है। वास्तविक सत्य मैं आत्मा ही हूँ)।

उद्धव जी ने पूछा- 'भगवन्! यह जीव देह आदि रूप गुणों में ही रह रहा है। फिर देह से होने वाले कर्मों या सुख-दुःख आदि रूप फलों में क्यों नहीं बँधता है? अथवा यह आत्मा गुणों से निर्लिप्त है, देह आदि के सम्पर्क से सर्वथा रहित है, फिर इसे बन्धन की गति कैसे होती है?

बद्ध अथवा मुक्त पुरुष कैसा बर्ताव करता है, वह कैसे विहार करता है, या वह किन लक्षणों से पहचाना जाता है, कैसे भोजन करता है? और मल-त्याग आदि कैसे करता है? कैसे सोता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?

अच्युत! प्रश्न का मर्म जानने वालों में आप श्रेष्ठ हैं। इसलिये आप मेरे इस प्रश्न का उत्तर दीजिये-एक आत्मा अनादि गुणों के संसर्ग से नित्यबद्ध भी मालूम पड़ता है और असंग होने के कारण नित्य मुक्त भी। इस बात को लेकर मुझे भ्रम हो रहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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