एकादश स्कन्ध: दशम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: दशम अध्याय श्लोक 14-21 का हिन्दी अनुवाद
अब जीव स्वरूपतः परतन्त्र है, विवश है, तब तो स्वार्थ या परमार्थ कोई भी उसका सेवन न करेगा। अर्थात् वह स्वार्थ और परमार्थ दोनों से ही वंचित रह जायेगा। (यदि यह कहा जाये कि जो भलीभाँति कर्म करना जानते हैं, वे सुखी रहते हैं, और जो नहीं जानते उन्हें दुःख भोगना पड़ता है तो यह कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि) ऐसा देखा जाता है कि बड़े-बड़े कर्मकुशल विद्वानों को भी कुछ सुख नहीं मिलता और मूढ़ों का भी कभी दुःख से पाला नहीं पड़ता। इसलिये जो लोग अपनी बुद्धि या कर्म से सुख पाने का घमंड करते हैं, उनका वह अभिमान व्यर्थ है। यदि यह स्वीकार कर लिया जाये कि वे लोग सुख की प्राप्ति और दुःख के नाश का ठीक-ठाक उपाय जानते हैं, तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्हें भी ऐसे उपाय का पता नहीं है, जिससे मृत्यु उनके ऊपर कोई प्रभाव न डाल सके और वे कभी मरें ही नहीं। जब मृत्यु उनके सिर पर नाच रही है, तब ऐसी कौन-सी भोग-सामग्री या भोग-कामना है, जो उन्हें सुखी कर सके? भला, जिस मनुष्य को फाँसी पर लटकाने के लिये वधस्थान पर ले जाया जा रहा है, उसे क्या फूल-चन्दन-स्त्री आदि पदार्थ सन्तुष्ट कर सकते हैं? कदापि नहीं। (अतः पूर्वोक्त मत मानने वालों की दृष्टि से न सुख ही सिद्ध होगा और न जीव का कुछ पुरुषार्थ ही रहेगा)। प्यारे उद्धव! लौकिक सुख के समान पारलौकिक सुख भी दोषयुक्त ही है; क्योंकि वहाँ भी बराबरी वालों से होड़ चलती है, अधिक सुख भोगने-वालों के प्रति असूया होती है-उनके गुणों में दोष निकाला जाता है और छोटों से घृणा होती है। प्रतिदिन पुण्य क्षीण होने के साथ ही वहाँ के सुख भी क्षय के निकट पहुँचते रहते हैं और एक दिन नष्ट हो जाते हैं। वहाँ की कामना पूर्ण होने में भी यजमान, ऋत्विज् और कर्म आदि की त्रुटियों के कारण बड़े-बड़े विघ्नों की सम्भावना रहती है। जैसे हरी-भरी खेती भी अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदि के कारण नष्ट हो जाती है, वैसे ही स्वर्ग भी प्राप्त होते-होते विघ्नों के कारण नहीं मिल पाता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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